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________________ अनेकान्त/17 श्रमण की आहारचर्या -कु. निशा गुप्ता त्रयाणां शरीराणां षष्णां पर्याप्तीनां योग्यपुदगलग्रहणमाहारः अर्थात् तीन शरीर (औदरिक, वैक्रियिक और आहारक) और छह पर्याप्तियों (आहार, शरीर इन्द्रिय, आनप्राण अर्थात श्वासोच्छवास, भाषा और मन) के योग्य पुद्गलो के ग्रहण करने को आहार कहते हैं। यह जीव अहारमय है। अन्न की इसका प्रमाण है। आहार के अभाव में आर्त और रौद्र ध्यान से पीड़ित होकर वह ज्ञान और चरित्र में मन नहीं लगाता।2 आगम मे कहा है- शरीर रतनत्रयरूपी धर्म का मुख्य कारण है, इसलिए भोजनादि के द्वारा इस शरीर की स्थिति के लिए इस प्रकार का प्रयत्न करना चाहिए कि जिससे इन्द्रियाँ वश में रहें और अनादिकाल से सम्बद्ध तृष्णा के वशीभूत होकर कुमार्ग की ओर न जावे । अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य के भेद से आहार चार प्रकार का होता है। क्षुधा को शान्त करने वाला आहार जैसे-भात, दाल आदि अशन नामक आहार हैं जो खाया जाय जैसे-पूरी लड्डू आदि आहार खाद्य है। प्राणों पर अनुग्रह करने वाला जैसे-जल, दूध आदि आहार पान है तथा जो आहार स्वादपूर्वक लिया जाय जैसे--पान, सुपारी आदि स्वाद्य है। प्रमुख ग्रनथों के आधार पर आहार के भेद प्रभेदों को निम्न प्रकार समझा जा सकता है आहार कर्माहारादि खाद्यादि कांजीआदि पानकादि कर्माहार नोकर्माहार कवलाहार लेप्पाहार ओजाहार मानसाहार -अशन -कांजी -पान -आंवली या -भक्ष्य या खाद्य -आचाम्ल -लेह्य -बेलडी -स्वाद्य -एकलटाना -स्वच्छ -बहल -लेवड -अलेवड -ससिक्थ -असिक्थ 1. स्वार्थ सिद्धि 2/30, 2. अनगार धर्मामृत 7/16 3. अनगार धर्मामृत 7/9 4. मूलाचार गा 646. भ. आ. गा.423 की वि. पृ. 328 5. मूलाचार गा. 646, अधर्मा. 7/13 6. नियमसार तात्पर्य वृत्ति 63 7. मूलाचार गा. 646, अं. धर्मा 7/13 8. व्रत विधन संग्रह पृष्ठ 26, 9. भगवती आराधना गा. 700
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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