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________________ अनेकान्त/10 जैन दर्शन में भगवद् भक्ति -नाथूराम डोंगरीय जैन (न्यायतीर्थ) श्रद्धापूर्वक गुणानुराग प्रकट करने को भक्ति कहते हैं। आत्मीय गुणों में समानता होने से प्रत्येक व्यक्ति अपने गुणों का विकास कर परमात्मा बन सकता है यह जैन धर्म का अटल सिद्धांत है। अतः आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए यह आवश्यक है कि हम परमात्मा में अभिव्यक्त एवं प्रकर्षता को प्राप्त सद्गुणों की हर प्रकार आराधना कर अपने अव्यक्त गुणों को विकसित करने का सद् प्रयत्न करें। जैन दर्शन में इसी पवित्र उद्देश्य को लेकर भगवतभक्ति करने का विधान किया गया हैं वस्तुतः जैन पूजा या उपासना एक आदर्श पूजा है जिसके करने का उद्देश्य भगवान् को प्रसन्न करना या उनसे कुछ प्राप्त करने की आकांक्षा रखना नहीं है, क्योंकि भगवान् वीतराग हैं अतः वे भक्ति से प्रसन्न और न करने से अप्रसन्न होकर किसी को वरदान या श्राप नहीं देते- जैसा कि कर्त्तावादी मानते हैं। किन्तु वीतराग भगवान की भक्ति करने से आत्मा में गुणानुराग में वृद्धि होकर भावों में विशुद्धि और वीतरागता का संचार होता है तथा में भी वीतराग परमात्मा बनूं-ऐसी भावना प्रस्फुरित होती है। अतः जैनागम में वीतराग (अर्हन्त) भक्ति को परमात्म पद प्राप्त करने का एक साधन मानकर सोलहकारण भावनाओं में भी प्रमुख स्थान दिया है। सम्यदर्शन जिन साधनों से प्राप्त होता या हो सकता है उनमे जिन बिंब दर्शन, वंदन, गुणास्तवन, जिनधर्म श्रवण प्रमुख हैं। इस विशाल विश्व में अधिकांशजनों की मान्यता है कि इस जगत का और हम सबका निर्माता-सुख-दुख का विधाता एवं स्वर्ग मोक्ष प्रदाता एक ईश्वर है। हम सब उसी की संतान हैं और वह हमारी भक्ति से प्रसन्न या न करने से अप्रसन्न होता है तथा उसकी मर्जी के बिना कुछ नहीं होता। यहां तक कि एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। किन्तु जैन दर्शन में विश्व के सभी पदार्थों को अनादि निधन एवं स्वतंत्र सत्तात्मक माना गया है तथा उसमें परमात्मा (भगवान) को वीतराग, निरंजन, निर्विकार, परमज्योतिस्वरूप, कृतकृत्य एंव निरेच्छ मान उसे निराकुल एवं ज्ञानानंद स्वरूपी स्वीकार किया गया है। वह संसार के बनाने-मिटाने (निर्माण या संहार करने) आदि की सभी झंझटों से मुक्त है। उसकी आत्मा हमें आत्म दर्शन के लिए एक विशुद्ध आदर्श के समान है- जिसका ध्यान और आराधना करने
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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