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________________ अनेकान्त/11 से हमें आत्म दर्शन (समय दर्शन) की प्राप्ति होती है या हो सकती है और फिर हम अपने सम्यग् ज्ञान एवं सदाचार द्वारा पुरूषार्थ कर उसी के समान परमात्म्य लाभ भी प्राप्त कर सकते हैं। अत: परमात्मा एवं उसके गुणों की आराधना करना हम सबका परम कर्तव्य माना गया है। चूंकि प्रत्येक व्यक्ति अपना उत्थान एवं पतन स्वयं ही करता या कर सकता है यदि वह पुरुषार्थ करें तो स्वयं को परमात्मा बना ले और या दुष्कर्मों द्वारा पतित होकर नारकी। अतः समझदारी इसी में है कि यह सदकर्म कर स्वयं को शुद्ध (परमात्मा) बनावे सदा के लिए संसार के बंधनों से मुक्त होकर सुखी बन जावे। ___ आधुनिक युग में जबकि मोहजन्य कषाएं -- विषय वासनाएं एवं भ्रांत धारणाएं अपनी-अपनी चरम सीमा को प्राप्त होकर मानवता के भी विनाश करने में जुटी हुई है तथा शुक्ल ध्यान तो दूर धर्म ध्यान की संभावनाएं भी आर्त्तरौद्र ध्यान के कारण प्रायः क्षीण हो गई हैं ऐसी स्थिति में भगवत्भक्ति में चित्त को स्थिर रखकर भावों में पवित्रता लाने का अन्य कोई सरल साधन भी नहीं रह गया है। शील पाहुड़ ग्रंथ में आचार्य कुंदकुंद ने अरहंत भक्ति को सम्यक्त्व कहा है। तथैव आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड-श्रावकाचार मे जिनेन्द्र भगवान् पर श्रद्धा करने को सम्यंगदर्शन कहकर उनकी नित्य प्रति पूजा-उपासना करने की प्रेरणा भी की है और उसको आत्म विकारों का नाश करने वाली कहकर अपने मनोरथों को सिद्ध करने वाली भी दर्शाया है। यहाँ तक कि स्वयं भ. वृषभदेव से लेकर महावीर धर्म एवं सभी तीर्थंकरों ने भी इसीलिए देव दर्शन, पूजन, वंदन, गुणस्मरण, संस्तंवन, ध्यानादि प्रक्रियाओं द्वारा वीतरागता की उपासना करने का श्रावक के दैनिक षट्कर्मों तथा श्रमणों के षडावश्यकों के अंतर्गत विधान किया तथा तदनुरूप सिद्ध वंदना व संस्तवन रूप स्वयं भी आचरण किया है। ___ वस्तुतः मुक्ति मार्ग (आत्मशुद्धि का मार्ग) वीतराग भगवान् और उनकी पवित्र वाणी पर आस्थापूर्वक उपासना एवं तदनुकूल आचरण करने से ही प्रारंभ व प्रशस्त होता है। क्योंकि सर्वप्रथम भगवतवाणी से ही देशनालब्धि को प्राप्त जीव ही अपनी चिरकालीन मोहनिद्रा को भंग कर जागृत हो सम्यादृष्टि बनता है-यह नियम है। इसीलिए आत्म कल्याण के इच्छुक सभी मुमुक्षु व संतजन सदा से ही रागी द्वेषी देवी-देवताओं की उपासना न कर वीतराग भगवान् की उपासना एवं उनके गुणों की आराधना करते आए हैं। __भगवद् भक्ति का माहात्म्य ___ गुणानुरागपूर्वक निष्काम भगवद्भक्ति के प्रसाद से पूर्व संचित पाप कर्म स्वयमेव क्षय को प्राप्त हो जाते हैं तथा अनेक पापों का समूह पुण्य रूप में परिवर्तित हो जाता है और किन्हीं पापों की स्थिति व अनुभाग (फलदान शक्ति) भी क्षीण हो
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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