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________________ अनेकान्त/२५ अब यदि इनके अर्थ के लिए किसी से पूछा जाए तो निराशा ही हाथ लगेगी। ॐ का उच्चारण है ओम्' । इस ध्वनि का ऋग्वेद मे कोई जिकर नहीं है, परन्तु उपनिषद् इसके प्रभाव से भरे पड़े है। कुछ उपनिषद् यथा प्रणवोपनिषत्, अमृतनादोपनिषत्, एकाक्षरोपनिषत् और नादबिन्दूपनिषद् तो ॐ पर ही है, इसी को प्रणव भी कहते है। उपनिषदो के अनुसार ॐ एकाक्षर ब्रह्म है। वहाँ यह भी कहा है कि इनके तीन अक्षर है-अ, उ, म् । अक्षर अ ब्रह्म का, उ विष्णु का तथा म् महेश का स्वरूप है। ये तीनो अक्षर चाद, सूरज और अग्नि का भी रूप है। जब मोक्ष के पास ममुक्षु होता है तो कांसी के घटे का सा शब्द होता है। ओकार के इसी स्वरूप को समझना चाहिए। यह देवताओ, पितरो की तृप्ति हेतु यज्ञ तथा श्राद्ध आदि मे किया जाने वाला स्वाहा, स्वधा तथा वषट कार है। यह प्राणिमात्र के हृदयो मे ओतप्रोत है। माण्डूक्योपनिषद् के अनुसार ॐकार ब्रह्म है, त्रिकाल वाला ससार भी है। जैन धर्म मे भी ओंकार का बड़ा महत्व है। तीर्थकर की भाषा केवल ओकार मय होती है जिसे गणधर शास्त्र रूप मे गुम्फित करते है। जैन धर्म मे इसको पच परमेष्ठी का सार होना भी इस प्रकार बताते है-असरीर (सिद्ध) अर्हत, आइरिय, उवज्झाय, मुनि (साधु) इनके प्रथमाक्षर अ अ आ उ म की स्वर सधि करने पर बनता है शब्द ओम् । यदि ऐसा है तो इसका ॐ नम कहना समुचित ठहरता है। मेरे विचार से यह वह बिना बजाया (अनहत) नाद है जो सब ध्वनिया शेष होने जाने पर भी सुनाई देता है। तमाम मत्र सस्कृत भाषा मे है, फिर भी मत्रो में प्रयुक्त बीजाक्षरो या कुछ शब्दो का कोई शाब्दिक अर्थ नही होता परन्तु हर ध्वनि का तात्पर्य जरूर है, कोई प्रभाव अवश्य है। क्योकि अमंत्रमक्षर नास्ति नास्ति मूलमनोषधम् याने जैसे कोई जड़ अनौषध नही होती वैसे कोई बीज अक्षर अमत्र नहीं होता। वैसे दरअसल किसी ध्वनि को वही अर्थ मिलता है जिससे नाम व भाव की स्थापना उसमे हमने या हमारे पूर्वजो ने की है। ध्वनि उत्पन्न करना हर जीव का सहज स्वभाव है और ये ध्वनिया अनन्त है। सर्वत्र जगत मे सम्प्रेषण की माध्यम है। किसी भी भाषा मे सारी ध्वनिया काम मे नही ली जाती। कुछ ध्वनिया ऐसी है जिनका सम्बन्ध कार्य से जुड़ा होता है, किसी सन्दर्भ मे उनका प्रयोग होता है। मत्र ऐसी ही ध्वनिया हैं जिनका क्रिया से अविनाभावी सम्बन्ध है। पूजा व ध्यान की जो अनिवार्य ध्वनिया है वे ही मत्र है। क्रिया के बिना वे ध्वनिया अर्थहीन लगती हैं। विधिपूर्वक पूजा करने का मतलब है
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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