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________________ अनेकान्त/२६ कुछ निश्चित ध्वनियों यथा बीजाक्षरो के प्रयोग के साथ पूजा की क्रिया करना। क्योंकि इन ध्वनियो के बिना क्रिया का कोई फल नही, अत. विसर्जन पाठ में कहते है। मंत्रहीनं क्रियाहीनं द्रव्यहीनं तथैव च। तत्सर्व क्षम्यतां देव रक्ष रक्ष जिनेश्वर।। मत्र और क्रिया का यह सम्बन्ध पुराना है और साधक इस सम्बन्ध की फलदायिनी शक्ति पर विश्वास करते आ रहे हैं। वह विश्वास ही इन ध्वनियो को सार्थकता व शक्ति प्रदान करते है। ये ध्वनिया एक प्रकार का सगीत व रहस्यात्मकता पैदा करती है और संगीत या काव्य की भांति बार बार बोली जाने पर ही ये ध्यान की ओर ले जाती है और साधक की तल्लीनता उसे इन्द्रियातीत करती है। ये मत्र ध्वनिया देवता या ध्येय का नाम भी हैं, ध्येय को आहूत करने के लिए भी है। साधक की शरीर शुद्धि न्यास के लिए, प्रेतात्माओ के भगाने के लिए भी प्रयुक्त होती है। मत्र अत वे ध्वनिया जिनको धार्मिक सस्कारो ने व्यवस्थित सहित ही नही किया बल्कि उनके प्रयोग पर भी एक सीमा व पाबदी लगा दी है। इस तरह मंत्र वाक् शक्ति का स्वरूप है। ससार की हर क्रिया वाक से होती है। वाक ही मति है, क्योकि बिना वाक के कोई सोच विचार सम्भव नही है, अत चित्त ही मंत्र है। क्योकि बिना शब्द के कोई प्रत्यय नही है। इस वाक शक्ति को ऋषियो ने स्वर, व्यंजन और अननुनासिक मे बाटा है। इस विशाल विश्व मे जो भूत (elements) हैं उनका मूल व सूक्ष्म रूप व ध्वनि करण ही मत्र है, यथा कं वायु र अग्नि, लं पृथ्वी, व जल। ये मंत्र स्वर व्यजनों के संयोग से बनते है। अकारादि हकारान्ता मंत्रा परमशक्तय:। स्वमण्डलगता ध्येया लोकद्वव्य फलप्रदा।। ऋषियो ने १६ स्वर और ३३ व्यजन पहचान किए है। इनके अलग अलग मण्डल है। इन मण्डलो पर फिर कभी चर्चा करूगा। फिलहाल इतना कहना पर्याप्त है कि स्वर-व्यजनो के सयोग से मत्र बनते है और यह सयोजन कठिन ही नही दुर्लभ भी है। मत्रो की शक्ति उच्चारण मे है। उससे बढ़कर है उपांशु में और उससे भी बढ़कर है तूष्णी मे। मन ही मन बार बार दुहराना - इस आवृत्ति से निरर्थक दिखाई देने वाले अक्षरो मे एक शक्ति का सचार होता है, एक ऊर्जा पैदा होती है। मत्र शास्त्र मे इसलिए स्वर-व्यजनो मे से प्रत्येक को अलग अलग शक्ति-लब्धि का देने वाला माना गया है। मत्रोचार के साथ की गई पूजा की क्रिया ही पूजा का फल देती है। आत्म कल्याण के लिए की गई पूजा पर हित भी करे इसके लिए पूजा के अत मे शाति
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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