SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त/२३ फल और अष्टकर्मों के क्षय के लिए इकट्ठा इन्ही अष्ट द्रव्यो का अर्घ्य । ये ही कुछ नवीन कवि चैत्यालयो की पूजन मे किसी प्रयोजन का जिकर किए बिना ही निर्वपण करते है। यह भी विचारणीय है। श्वेताम्बर परम्परा मे अष्ट द्रव्य अलग-अलग न चढ़ाकर केवल अर्ध्य ही चढ़ाते हैं। दिगम्बर परम्परा मे भी समयाभाव से पूरी पूजा न करने पर अथवा की गई पूजाओ का उपसहार करने पर अर्ध्य चढ़ाते है जिसे पूर्णाऱ्या या महार्य कहते है। यथा-उदकचन्दनतन्दुलपुष्पकैःश्चरूसुदीपसूधूपफलार्घकैः। धवलमंगलगानरवाकुले जिनगृहे जिननाथमह यजे।। उनके द्वारा समर्पित अष्ट द्रव्यो मे वस्त्र भी चढ़ाया जाता है। हम शास्त्र पूजा मे नौ द्रव्यो मे वस्त्र द्रव्य चढ़ाते है। यथा-नयनसुखकारी मृदुगुनधारी उज्ज्वल भारी मोलधरे। शुभ ग्रंथ सम्हारा वसन निहारा तुम तन धारा ज्ञान करे।। दिगम्बर परम्परा मे वीतराग देव को वस्त्र चढ़ाने का विधान नही है। अब जब आराध्य को बुला लिया, पास मे बैठा लिया, स्वागत सत्कार कर लिया, भोजन परोस लिया, स्वीकृत हुआ मान भी लिया, तो फिर पूज्य और पूजक दोनो विदा लेना ही चाहेगे-यह स्वाभाविक है। इसलिए शिष्टाचार के साथ अपनी कमी के लिए क्षमा मागकर यह कह कर विसर्जन किया जाता है-आहूता ये पुरा देवा : लब्धभागा यथाक्रमम्। ते मयाभ्यार्चिता भक्त्या सर्वे यान्तु यथा स्थितिम्।। (जिन महाभाग देवो को मैने बुलाया, उनकी मैने भक्ति पूर्वक अर्चना की वे यथाक्रम से अपने अपने स्थान को जाए ।) उनके चले जाने पर उनके द्वारा अब रिक्त हुए आसन याने आसिका को नमन कर उनको धोने के लिए डाल दिया जाता है। कुछ लोग स्थापना तो करते है, किन्तु विसर्जन को आम्नाय के प्रतिकूल मानते है और उसके स्थान पर क्षमापाठ भर ही करते है। जाहिर है यह अधूरी प्रक्रिया है। क्षमा माग कर विदाई करना ही पूजा समाप्त करने की समुचित प्रक्रिया जान पड़ती है। आत्मपूजोपनिषद् कहता है कि आत्मा का चिन्तन ही ध्यान है। कर्मो का त्याग ही आह्वानन है, स्थिर ज्ञान ही आसन है, आत्मा की ओर मन लगाए रखना ही अर्ध्य है, शून्य लय समाधि ही गध है, अन्त ज्ञान चक्षु ही अक्षत है, चिद् का प्रकाश ही पुष्प है, सूर्यात्मकता ही दीप है, पूर्ण चन्द्र का अमृत रस ही नैवेद्य है, सदा सन्तुष्ट रहना ही विसर्जन है। जैसे द्रव्य पूजा के लिए नैवेद्यादि चाहिए वैसे ही भाव पूजा आत्म पूजा के लिए उपर्युक्त आध्यात्मिक सामग्री चाहिए।
SR No.538050
Book TitleAnekant 1997 Book 50 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1997
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy