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अनेकान्त/15 हमारी सांसारिकता और वासना से जन्मा है, पनपा है।
सांसारिकता और वासना यद्यपि अनादिकालीन आंचल है पर प्राचीन काल मे वह इतना मैला नहीं हुआ था जितना आज हो गया है। जनसख्या की बेतहाशा वृद्धि ने समस्याओं का अंबार लगा दिया और प्रकृति से छेडछाड कर विप्लव सा खडा कर दिया है। हमारे प्राचीन ऋषियों-महर्षियों की दूरदृष्टि में इस विप्लवता का सभावित रूप उपलक्षित हो गया था, इसलिए उन्होंने लोगों को सचेत करने के लिए प्रकृति के अपार गुण गाये, पूजा की, काव्य मे उसे प्रमुख स्थान दिया, ऋतु-वर्णन को महाकाव्य का अन्यतम लक्षण बनाया, रस को काव्य का प्रमुख गुण निर्धारित किया और काव्य की संपूर्ण महत्ता और लाक्षणिकता को प्रकृति के सुरम्य आंगन मे पुष्पाया। दूसरे शब्दों में प्रकृति की गोद से काव्य का जन्म हुआ और उसी में पल-पुसकर वह विकसित हुआ। पर्यावरण के प्रदूषित होने का भय भी वहा अभिव्यजित है।
जीवन का हर पक्ष काव्य का परिसर है और उसकी धडकन आगम का प्रतितिम्बन है। जिस सस्कृति ने जीवन को जिस रूप से समझा है उसने अपने आगम मे उसे वैसा ही प्रतिरूपित किया है। जैन-आगम श्रमण धारा का परिचायक है। इसलिए उसके आगम में उसी रूप में जीवन को समझने के सूत्र गुम्फित हुए है। इन्ही सूत्रों ने जीवन दर्शन को समझने और पर्यावरण को सन्तुलित बनाये रखने का अमोघ कार्य किया है।
आज की पर्यावरण समस्या व्यक्तिगत न होकर सामूहिक हो गई है। उसने समाज और राष्ट्र की सीमा लाघकर अन्तर्राष्ट्रीय सीमा में प्रवेश कर लिया है। पर्यावरण प्रदूषण से एक ओर प्राकृतिक सम्पदा विनष्ट हो रही है तो दूसरी ओर राग-द्वेषादिक विकारों से ग्रस्त होकर व्यक्ति और राष्ट्र पारस्परिक सघर्ष कर रहे हैं और विनाश के कगार पर खड़े हो गये है। वह सघर्ष सामाजिक, आर्थिक, आध्यात्मिक आदि सभी क्षेत्रों में घर कर गया है। इसलिए सभी धार्मिको का ध्यान इस ओर वरवशखिच गया है और उन्होंने अपने-अपने आगमो मे से अपने-अपने ढंग से पर्यावरण सुरक्षा के सिद्धान्त, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आचरण-संहिता का निर्माण, कार्यान्वयन का तरीका, आर्थिक संसाधनो के उपयोग मे सामाजिक दूरदृष्टि, आध्यात्मिक चेतना का जागरण आदि जैसे सिद्धान्तों को प्रकाशित करने का प्रयत्न प्रारम्भ कर दिया है।
धर्म की समन्वित परिभाषाओं मे जैनधर्म अन्य धर्मों की अपेक्षा अधिक खरा उतरता है। पर्यावरण का सम्बन्ध मानवता और अहिंसा के परिपालन से रहा है। जो जैनधर्म की अनुपम विशेषता है। इसलिए हम कह सकते हैं कि जैनधर्म मानवता और पर्यावरण का पर्यायार्थक है, प्रकृति का गहरा उपासक है और अहिंसा का सूक्ष्मदर्शी है। 00