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________________ अनेकान्त/14 सर्वोदय की पृष्ठभूमि में जीवन का यही रूप पलता-पुसता है। आज की भौतिकता प्रधान संस्कृति में जैन धर्म सर्वोदयतीर्थ का काम करता है। जैनधर्म वस्तुतः एक मानव धर्म है उसके अनुसार व्यक्ति यदि अपना जीवन-रथ चलाये तो वह ऋषियों से भी अधिक पवित्र बन सकता है। श्रावक की विशेषता यह है कि उसे न्याय-पूर्वक धन-सम्पत्ति का अर्जन करना चाहिए और सदाचारपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए। सर्वोदय दर्शन मे परहित के लिए अपना त्याग आवश्यक हो जाता है। जैनधर्म ने उसे अणुव्रत की या परिमाणव्रत की सज्ञा दी है। इसमें श्रावक अपनी आवश्यकतानुसार सम्पत्ति का उपभोग करता है और शेष भाग समाज के लिए बाट देता है। अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्तवाद तथा शिक्षाव्रतो का परिपालन भी आत्मोन्नयन और समाजोत्थान में अभिन्न कारण सिद्ध होता है। सर्वोदय और विश्व-बधुत्व के स्वप्न को साकार करने मे भगवान महावीर के विचार नि सदेह पूरी तरह सक्षम हैं उसके सिद्धान्त लोकहितकारी और लोक सग्राहक है। समाजवाद और अध्यात्मवाद के प्रस्थापक हैं। उनसे समाज और राष्ट्र केबीच पारस्परिक समन्वय बढ़ सकता है और मनमुटाव दूर हो सकता है । इसलिये विश्वशाति को प्रस्थापित करने मे अमूल्य कारण बन सकते है। महावीर इस दृष्टि से सही दृष्टार्थ और सर्वोदयतीर्थ के सही प्रणेता थे। मानव मूल्यो को प्रस्थापित करने में उनकी यह विशिष्ट देन है जो कभी भुलायी नही जा सकती। इस सदर्भ में यह आवश्यक है कि आधुनिक मानव धर्म को राजनीतिक हथकंडा न बनाकर उसे मानवता को प्रस्थापित करने के साधन का एक केन्द्र बिन्दु माने । मानवता का सही साधक वह है जिसकी समूची साधना समता और मानवता पर आधारित हो और मानवता के कल्याण के लिए उसका मूलभूत उपयोग हो । एतदर्थ खुला मस्तिष्क, विशाल दृष्टिकोण, सर्वधर्म समभाव और सहिष्णुता अपेक्षित है। महावीर के धर्म की मूल आत्मा ऐसे ही पुनीत गुणों से सिचित है और उसकी अहिसा वदनीय तथा विश्वकल्याणकारी है। यही उनका सवोदयतीर्थ है। इस सिद्धान्त को पाले बिना न पर्यावरण विशुद्ध रखा जा सकता है औ न संघर्ष टाला जा सकता पर्यावरण और अध्यात्म पर्यावरण प्रकृति की विराटता का महनीय प्रांगण है, भौतिक तत्त्वो की समग्रता का सासारिक आधार है और आध्यात्मिक चेतना को जाग्रत करने का महत्वपूर्ण संकेत स्थल है। प्रकृति की सार्वभौमिकता और स्वाभाविकता की परिधि असीमित है, स्वभावत वह विशुद्ध है, पर भौतिकता के चकाचौंध मे फंसकर उसे अशुद्ध कर दिया जाता है। प्रकृति का कोई भी तत्त्व निरर्थक नहीं है। उसकी सार्थकता एक-दूसरे से जुडी हुई है। सारे तत्वो की अस्तित्व-स्वीकृति पर्यावरण का निश्चल संतुलन है और उस अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह खडा कर देना उस सन्तुलन को डगमगा देना है। पर्यावरण का यह असन्तुलन अनगिनत आपत्तियों का आमन्त्रण है जो
SR No.538049
Book TitleAnekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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