________________
अनेकान्त/13 की कांक्षाओं का प्लाट है, विनाश उसका क्लायमेक्स है, विचारो और दृष्टियों की टकराहट तथा व्यक्ति-व्यक्ति के बीच खडा हुआ एक लंबा गैप वैयक्तिक और सामाजिक संघर्षों को लांघकर राष्ट्र और विश्वस्तर तक पहुंच जाता है। हर संघर्ष का जन्म विचारों का मतभेद और उसकी पारस्परिक अवमानना से होता है । बुद्धिवाद उसका केन्द्रबिन्दु है।
अनेकान्तवाद बुद्धिवादी होने का आग्रह नहीं करता। आग्रह से तो वह मुक्त है ही पर वह इतना अवश्य कहता है कि बुद्धिनिष्ठ बनों । बुद्धिवाद खतरावाद है, विद्वानों की उखाडा-पछाडी है। पर बुद्धिनिष्ठ होना खतरा और सघर्षों से मुक्त होने के साधन है। यही सर्वोदयवाद है। इसे हम मानवतावाद भी कह सकते हैं जिसमें अहिसा, सत्य, सहिष्णुता, समन्वयात्मकता, सामाजिकता, सहयोग, सद्भाव,
और संयम जैसे आत्मिक गुणो का विकास सन्नद्ध है। सामाजिक और राष्ट्रीय उत्थान भी इसकी सीमा मे बहिर्भूत नही रखे जा सकते। व्यक्तिगत, परिवारगत, संस्थागत और सम्प्रदायगत विद्वेष की विषैली आग का शमन भी इसी के माध्यम से होना संभव है । अत सामाजिकता के मानदण्ड मे अनेकान्तवाद और सर्वोदयवाद खरे उतरे है।
धर्म के साथ एकात्मकता अविच्छिन्न रूप से जुडी है। राष्ट्र का अस्तित्व एकात्मकता की श्रृंखला से सबद्ध है। राष्ट्रीयता का जागरण उसके विकास का प्राथमिक चरण है। जन-मन में शान्ति, सह अस्तित्व और अहिसात्मकता उसका चरम बिन्दु है। विविधता मे पली-पुसी एकता सौजन्य और सौहार्द को जन्म देती हुई "परस्परोपग्रहो जीवानाम्" का पाठ पढाती है।
जैन श्रमण व्यवस्था ने उस एकात्मकता को अच्छी तरह परखा और सजोया भी अपने विचारो मे उसे जैनाचार्यों और तीर्थकरो ने समता, पुरुषार्थ और स्वावलम्बनको प्रमुखता देकर जीवन को एक नया आयाम दिया । श्रमण सस्कृति ने वैदिक सस्कृति में धोखे-धाखे से आयी विकृत परपराओं के विरोध में जेहाद बोल दिया और देखते ही देखते समाज का पुनः स्थितिकरण कर दिया। यद्यपि उसे इस परिवर्तन मे काफी कठिनाइयो का सामना करना पडा पर अन्ततोगत्वा उसने एक नये समाज का निर्माण कर दिया। इस समाज की मूल निधि चारित्रिक पवित्रता और दृढता थी जिसे उसने थाती मानकर कठोर झझावातो में भी अपने आपको संभाले रखा।
जीवन की यथार्थता प्रामाणिकता से परे होकर नहीं हो पाती। साध्य के साथ साधनों की पवित्रता भी आवश्यक है। साधन यदि पवित्र और विशुद्ध नहीं होंगे, बीज यदि सही नही होंगे तो उससे उत्पन्न होने वो फल मीठे कैसे हो सकते है? जीवन की सत्यता धर्म है। धोखा-प्रबंचना जैसे असामाजिक तत्वों को उसके साथ कोई सामंजस्य नहीं । धर्म और है भी क्या? धर्म का वास्तविक संबंध खान-पान और दकियानूसी विचारधारा में जुड़े रहना नहीं, वह तो ऐसी विचार क्रांति से जुड़ा है जिसमे मानवता और सत्य का आचरण कूट-कूट कर भरा है। एकात्मकता और