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________________ अनेकान्त/8 होने पर उत्पन्न होने वाला विशुद्ध आत्मा का परिणाम है। धर्म से परिणत आत्मा को ही सम कहा गया है। धर्म की परिणीति निर्वाण है। आचार्य कुन्दकुन्द का यही चितन है संपज्जदि णिव्वाणं देवासुर मणुवरावविहवेहिं। जीवम्स चरित्तादो दंसणणाणप्पहाणादो।।। चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जोसो समो ति णिद्दिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हि समो।। -प्रवचनसार, 1, 6, 7 धर्म व स्तुत आत्मा का स्पन्दन है जिसमें कारूण्य, सहानुभूति, सहिष्णुता, परोपकार वृत्ति आदि जैसे गुण विद्यमान रहते हैं। वह किसी जाति या सम्प्रदाय से संबद्ध और प्रतिबद्ध नही। उसका स्वरूप तो सार्वजनिक, सार्वभौमिक और लोकमागलिक है। व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व का अभ्युत्थान ऐसे ही धर्म की परिसीमा से सभव है। हिंसा के चार भेद हो जाते हैं-- स्वभावहिसा, स्व-द्रव्यहिसा, पर-भावहिसा और पर-द्रव्यहिंसा (पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, 43) आचार्य उमास्वामी ने इसी का संक्षेप "प्रमत्तयोगात्, प्राणव्यपरोपणं हिसा कहा है। इसलिए भिक्षुओं को कैसे चलना फिरना चाहिए, कैसे बोलना चाहिए आदि जैसे प्रश्नो का उत्तर दशवैकालिक, मूलाचार आदि ग्रन्थों में दिया गया है कि उसे यत्नपूर्वक अप्रमत्त होकर उठना-बैठना चाहिए, यत्नपूर्वक भोजन-भाषण करना चाहिए। कह चरे कह चिढे कहं भासे कहं सए कयं भुंजन्तो भासन्तो पावं कम्मं न बन्धई जयं चरे जयं चिट्टे जयमासे जयं सए जयं भुंजन्तो भासन्तो पावं कम्मं न बंधई।। -दशवैकालिक, 4,7,8 हिसा का प्रमुख कारण रागादिक भाव है। उनके दूर हो जाने पर स्वभावत' अहिंसा भाव जाग्रत हो जाता है। दूसरे शब्दों मे समस्त प्राणियो के प्रति संयमभाव ही अहिंसा है- अहिंसा निउण दिट्ठा सब्बभूएसु सजमो (दश)। उसके सुख संयम में प्रतिष्ठित है। संयम ही अहिंसा है। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के उत्थान के लिए यह आवश्यक है कि वे परस्पर एकात्मक कल्याण मार्ग से अबद्ध हों । उसमे सौहार्द, आत्मोत्थान, स्थायी शान्ति, सुख और पवित्र साधनों का उपयोग होता है। यही यथार्थ में उत्कृष्ट मंगल है। धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो।। -दशवैकालिक 1,1 मन, वचन, काय से संयमी व्यक्ति स्व पर का रक्षक तथा मानवीय गुणों का आगार होता है। शील, संयमादि गुणों से आपूर व्यक्ति ही सत्पुरूष है। जिसका चित्त मलीन व दूषित रहता है वह अहिंसा का पुजारी कभी नहीं हो सकता । जिस प्रकार पीसना, छेदना, तपाना, रगडना इन चार उपायों से स्वर्ण की परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार श्रुत, शील, तप और दया रूप गुणों के द्वारा धर्म एवं व्यक्ति
SR No.538049
Book TitleAnekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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