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________________ अनेकान्त/9 की परीक्षा की जाती है। संजमु सीलु सउज्ज तवु सूरि हि गुरु सोई। दाह-छेदक-संघायकसु उत्तम कंचणु होइ।। भावपाहुड 143 टीका जीवन का सर्वागीण विकास करना संयम का परम उद्देश्य रहता है। सूत्रकृतांग में इस उपदेश का एक रूपक के माध्यम से समझाने का प्रयत्न किया गया है। जिस प्रकार कछुआ निर्भय स्थान पर निर्भीक होकर चलता-फिरता है किन्तु भय की आशका होने पर शीघ्र ही अपने अंग-प्रत्यग प्रच्छन्न कर लेता है, और भय-विमुक्त होने पर पुन अग-प्रत्यग फैलाकर चलना-फिरना प्रारंभ कर देता है, उसी प्रकार संयमी व्यक्ति अपने साधना मार्ग पर बड़ी सतर्कता पूर्वक चलता हैं सयम की विराधना का भय उपस्थित होने पर वह पचेन्द्रियो व मन को आत्मज्ञान (अतर) मे ही गोपन कर लेता है जहां मुम्मे स अंगाइ सए देहे समाहरे। एवं पावाई मेहावी अज्झप्पेण समाहरे। सूत्रकृतांग, 1, 8, 6 सयमी व्यक्ति सर्वोदयनिष्ठ रहता है। वह इस बात का प्रयत्न करता है कि दूसरे के प्रति वह ऐसा व्यवहार करे जो स्वय को अनूकूल लगता हो। तदर्थउसे मैत्री, कारूण्य और माध्यस्थ भावनाओ का पोषक होना चाहिए। सभी सुखी और निरोग हों, किसी को किसी प्रकार का कष्ट न हो, ऐसा प्रयत्न करे। सर्वेऽपि सुखिनः सन्तु सन्तु रावे निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु या कश्चिद् दुःखमाप्नुयात्।। माऽकार्षीत् कोऽपि पापानि मा च भूत कोऽपि दुःखतः मुच्यता जगदप्येषा मति मैत्री निगद्यते।। यशस्तिलकचम्पू उत्तरार्ध दूसरो के विकास में प्रसन्न होना प्रमोद है। विनय उसका मूल साधन है। ईर्ष्या उसका सबसे बड़ा अन्तराय है। कारुण्य अहिसा भावना का प्रधान केन्द्र है। दुखी व्यक्तियो पर प्रतीकात्मक बुद्धि से उनमे उद्धार की भावना ही कारूण्य भावना है। माध्यस्थ भावना के पीछे तटस्थ बुद्धि निहित है। नि शंक होकर क्रूर कर्मकारियों पर आत्मप्रशंसको पर, निदको पर उपेक्षाभाव रखना माध्यस्थ भाव है। इसी को समभाव भी कहा गया है। समभावी व्यक्ति निर्मोही, निरहंकारी, निष्परिग्रही, स्थावर जीवो का सरक्षक तथा लाभ-अलाभ मे, सुख-दुख मे, जीवन-मरण में, निन्दा-प्रशंसा में, मान-अपमान मे, विशुद्ध हृदय से समदृष्ट होता है। समताजीवी व्यक्ति ही मर्यादाओ व नियमों का प्रतिष्ठापक होता है । वही उसकी समाचरिता है । वही उसकी सर्वोदयशीलता है। महावीर की अहिंसा पर विचार करते समय एक प्रश्न हर चिन्तक के मन में उठ खडा होता है कि संसार में जब युद्ध आवश्यक हो जाता है, तो उस समय साधक अहिंसा का कौन-सा रूप अपनायेगा। यदि युद्ध नहीं करता है तो आत्मरक्षण और राष्ट्ररक्षा दोनो खतरे में पड़ जाती है और यदि युद्ध करता है तो अहिंसक कैसा? इस प्रश्न का समाधान जैन चिन्तकों ने किया है। उन्होंने कहा कि आत्मरक्षा
SR No.538049
Book TitleAnekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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