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अनेकान्त/7 ईश्वर जैसे दलाल का कोई स्थान नही। ईश्वर यदि हम आप जैसा दलाल होगा और सृष्टि के रचने संरक्षण करने और विनाश करने मे उसी की मर्जी होगी तो ईश्वर में और हम आप जैसे संसारी जीवों मे भेदक-रेखा ही क्या रहेगी? हॉ, जैनधर्म में दान-पूजा भक्ति भाव का महत्व निश्चित ही है। इन सत्कर्मों के माध्यम से साधक अपने निर्वाण की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त अवश्य कर लेता है। इसमें तीर्थकर मात्र मार्गदृष्टा है प्रदीप के समान, वह निर्वाणदाता नहीं। इसलिए व्यक्ति के स्वय का पुरुषार्थ ही उसके लिए सब कुछ हो जाता है। ईश्वर की कृपा से उसका कोई सबध नहीं । पराश्रय से विकास अवरूद्ध हो जाता है। बैसाखी का सहारा स्वयं का सहारा नही माना जा सकता। अतः जैनधर्म मे व्यक्ति का कर्म और उसका पुरुषार्थ ही प्रमुख है।
सवोदयदर्शन आधुनिक काल मे गाधीयुग का प्रदेय माना जाता है। गाधीजी ने रस्किन की पुस्तक “अन टू दी लास्ट" का अनुवाद सर्वोदय शीर्षक से किया
और तभी से उसकी लोकप्रियता मे बाढ आयी । यहा सर्वोदय का तात्पर्य है प्रत्येक व्यक्ति को लौकिक जीवन के विकास के लिए समान अवसर प्रदान किया जाना । इसमे पुरुषार्थ का महत्व तथा सभी के उत्कर्ष के साथ स्वय के उत्कर्ष का संबंध भी जुड़ा रहता है। गाधीजी के इस सिद्धान्त को विनोबाजी ने कुछ और विशिष्ट प्रक्रिया देकर कार्यक्षेत्र मे उतार दिया। सर्वोदय का प्रचार यहीं से हुआ है। वैसे इतिहास की दृष्टि से विचार किया जाये तो सर्वोदय शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग जैन साहित्य मे हुआ है। प्रसिद्ध जैन तार्किक आचार्य समन्तभद्र ने भगवान महावीर की स्तुति “युक्त्यनुशासन” मे “सर्वोदय तीर्थमिदं तवैव' कहकर की है। यहां सर्वोदय शब्द दृष्टव्य है। सर्वोदय का तात्पर्य है सभी की भलाई। महावीर के सिद्धान्तो मे सभी की भलाई सन्निहित है। उसमे परिश्रम और समान अवसर का भी लाभ प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुरक्षित है।
राग, द्वेष, ईर्ष्या आदि भाव, सपत्ति का अपरिमित सग्रह, दूसरे की दृष्टि को बिना समझे ही निरादरकर सघर्ष को मोल लेना तथा राष्ट्रीयता का अभाव ये चार प्रमुखतत्त्व व्यक्ति के विकास मे बाधक होते हैं। सभी का विकास, 1 अहिसा, 2 अपरिग्रह, 3 अनेकान्तवाद ओर 4 एकात्मता पर विशेष आधारित है। अतः जैनधर्म के इन सर्वोदयी सूत्रो पर संक्षिप्त विवेचन अपेक्षित है। जिनका सम्बन्ध समूचे पर्यावरण से हैं। समता और पर्यावरण ___ अहिंसा सर्वोदय की मूल भावना है। वह अपरिग्रह की भूमिका को मजबूत करती है। अहिसा समत्व पर प्रतिष्ठित है। मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और मध्यस्थ भावों का अनुवर्तन, समता और अपरिग्रह का अनुचिन्तन, तप और अनेकान्त का अनुग्रहण तथा संयम और सच्चरित्र का अनुसाधन अहिंसा का प्रमुख रूप है। उसकी पुनीत प्राप्ति सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्र पर अवलंबित है। इसी चरित्र को धर्म कहा गया है। यही धर्म सम है। यह समत्व राग-द्वेषादिक विकारों के विनष्ट