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अनेकान्त/5 अनुवादक श्री आर शामशास्त्री थे। यह लगभग तीसरी से पांचवीं शती ईसवी की रचना मानी गई है। यही कौटिलीय अर्थशास्त्र भी कहलाता है। यह राजनीति का उत्कृष्ट ग्रंथ है जो चाणक्य ने चन्द्रगुप्त के लिए लिखा था। यह इससे पूर्व के प्रसिद्ध अर्थशास्त्रो पर आधारित है तथा जैन परम्परा की रचना है। इसमे स्थान-स्थान पर सर्वत्र ऐसे प्रसग, विवरण और उल्लेख मिलते है जो जैन धर्म से संबंधित और उसके बोधक हैं।
कौटिल्य अर्थशास्त्र मे पशुओं के भोजन, गौओ के दुहने, और दूध मक्खन आदि की स्वच्छता के सम्बन्ध में विस्तार से नियम दिये गये है तथा पशुओ को निर्दयता और चोरी से बचाने के लिए सविस्तार नियम निर्धारित किये गये हैं। इस प्रकार पशुओं की रक्षा का विशेष विधान उसके लेखक का अहिसा प्रेमी होना प्रकट करता है।
अर्थशास्त्र मे सर्वत्र अनेक नीतिसूत्र दिये गये है जो जैन प्रभाव बोधक है। इसमें जैनाचार विषयक सिद्धान्तों का भी प्रतिपादन किया गया है, यथा ।
क "दया धर्मस्य जन्मभूमिः" ख "अहिंसा लक्षणो धर्मः" ग "मांसभक्षणमयुक्तं सर्वेषाम्" घ "सर्वमनित्यं भवति" ड "विज्ञानदीपेन संसार भयं निवर्तते" आदि।
इसी प्रकार, अर्थशास्त्र मे स्थान-स्थान पर जैन लाक्षणिक शब्दो का प्रयोग हुआ है। ऐसे शब्द जैन तत्वज्ञान में विशेष अर्थ रखते है, अन्यथा उनका शब्दिक अर्थ सर्वथा भिन्न है, यथा उपभेदवाची "प्रकृति" शब्द । जैन दर्शन मे कर्मो के 148 भेदो को कर्मों की प्रकृतियां कहते है अन्यथा “प्रकृति” शब्द भेद-प्रभेद वाची नहीं है। कौटिल्य ने “प्रकृति' शब्द का प्रयोग जैन विशिष्ट वाची उपभेद बोधक अर्थ में ही किया है, जैसे “अरि और मित्रादिक राष्ट्रो की कुल प्रकृतिया 72 होती है। इस प्रकार के सभी प्रयोग जैन परम्परा बोधक हैं।
कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र मे राजा को प्रेरणा दी है कि राजा अपने नगर के बीच मे "विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नामक देवताओं की स्थापना करे । ये चारो ही देवता जैन है। सासारिक दृष्टि से नगर के बीच मे इनके मन्दिरो के बनवाने की इसलिए आवश्यकता है कि ये चारो ही देवता उस स्थान के रहने वाले है जहा की सभ्यता ऐसी बढी-चढी है कि वहा पर प्रजासत्तात्मक राज्य अथवा साम्राज्य-शून्य ही ससार बसा हुआ है। ये अपनी बढी-चढी सभ्यता के कारण अहमिन्द्र कहलाते हैं और इनके रहने के स्थान को जैन शास्त्रो मे ऊचा स्वर्ग माना है। लोक शिक्षा के लिए तथा राजनति का उत्कृष्ट ध्येय बतलाने के लिए इन देवताओं का प्रत्येक नगर के बीच होना आवश्यक है।
इन उल्लेखों से और ऐसे ही अन्य उल्लेखो से, जो अर्थशास्त्र का अध्ययन करने से प्रकट होते है, चाणक्य का जैन धर्म विषयक श्रद्धान ही प्रकट होता है।
इस प्रकार, कौटिलीय अर्थशास्त्र पर जैन परम्परा का व्यापक प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इसी कारण इसे जैन परम्परा के ग्रंथो की कोटि मे रखा जा सकता