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अनेकान्त/34
जोति परगास भई, मारग दिषाई है। सूधो चढयौ जात सुरलोक के "विनोदीलाल,'
जिन नवकार मंत्र सेती लव लाई है। नवकार मंत्रों के जाप में उद्धार करने की शक्ति इतनी है कि हिंसा, कुशील, अस्तेय आदि दुर्गुण भी इसमें व्यवधान नहीं डाल पाते
हिंस्याके करिया, मुष झूठ के बुलइया, परधन के हरईया, करणां न जाकै हीर्य है। सहत के खवईया, मद पान के करईया, कंदमूल के भखईया, और कठोर अति हीये है सील के गमईया, झूठी साखि के करैइया महान नरक के जवईया, जिन औ पाप कीये हैं। तो उतरि जात छिन, एक मैं "विनोदीलाल'
अंत समैं जिन, नवकार नाम लीये हैं। भक्ति के प्रेरक तत्व :
आध्यात्मिक साधना अथवा भक्तिभाव की प्ररेणा-हेतु साधकों में संसार की नश्वरता और पूर्वकालीन जन्म-जन्मान्तरो के कष्टो के वर्णन की परम्परा दीर्घकाल से रही है। जैन कवि विनोदीलाल के सवैयो में इस परम्परा का निर्वाह विद्यमान है। व्यवहार जगत के अस्तित्व की क्षणिकता प्रदर्शित करने के लिए जलबिन्दु, दामिनी, स्वप्न तूलिका छाया आदि उपमान परम्परागत ही प्रयुक्त किए गए हैं।
अब कहत भईया जगत में न धनु कडूं, जैसो जल बिन्द तैसो, सब जग जानिये। तूलका कौ पात जैसो, छिन में विलाई जाय दामिनी की दमक, चुमक ज्यों बखानिये।। धन सुत वंधु नारि, सुपनि की संपत्ति है, थिरता न कछू सब, छाय सी प्रमानिये। कहत 'विनोदीलाल' जपो नवकार माल,
और सब संपदा अन्यत कर मानिये। पुनर्जन्मो की लम्बी परम्परा को नट की कलाओ के समान ठहराकर कवि ने उसकी भर्त्सना की है।
संसार समुद्र मांहि पाये वारापार नाहि, फिरै गति च्यारौं ताकौ न दुष कहिये। जूनि चौरासी लाख फिरत अनंत आयो, नाना रूप धरै जैसे, नट वाजि सहिये।। रोग होत सोग होत, मरन बिजोग होत, जनम मरन हौंत कौं, नरकौ सहिये। कहत 'विनोदीलाल', जपो नवकार माल,
भवजाल तोरि कै, सरन जिन गहिये। भौतिक सुखों की निस्सारता और तन की अशुचिता के संकेत भी भक्ति भावना में दृढ़ता लाने की दृष्टि से ही दिए गए हैं।