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________________ अनेकान्त/33 राजतै नरक हो त्रिसना के बढाय तैं। कहत 'विनोदीलाल' जपो नवकार माल, पाइये परमपदपंच पद धारे तैं। मध्यकालीन जैन कवि बलिप्रथा के रूप में विद्यमान हिंसा भाव तथा भूत प्रेतों की पूजा की निंदा कबीर जैसी तीखी भाषा में तो नहीं कर सके, किन्तु इनके प्रति व्यंग्यपूर्ण विरोध निरंतर गतिशील अवश्य रहा। अन्य पूजा पद्धतियों की अपेक्षा नाम स्मरण को अपेक्षाकृत श्रेष्ठता प्रदान करना निर्गुण संतकवियों के समान जैन साधकों का भी अभीष्ट था। नामस्मरण के प्रति विनोदीलाल की एकनिष्ठता दृष्टव्य काहू के तो धन है रूपीइया और मोहोर घनी, काहू के तो देखीइये तुरत भंडार है। काहू के कंचन माल, काहू हीरा मोती लाल, काहू कै बसन सील, काहू के हजार है।। काहू के तुरंग गज काहू कै अनंत राज, काहू के पटन देस महिमा अपार है। कहत विनोदीलाल प्रभु जी कीये निहाल, मेरै नवकार मंत्र प्रान को आधार है।। काहू के बल देवन को भूत प्रेत इष्टनि कौ, काह के तो चंडी मुंडी देवी क्षेत्रपाल कौ। काहू के बल लरिबे कौ, बस पाय मरबे को, काहू के बल मारिबे को, अपनै हथ्यार कौ।। काह के बल ध्याइबे कौ, काह कै कुमाइबे कौ। काहू कै बल गाइबे कौ, काहू को उधार है। कहत "विनोदीलाल' जपत हौ तिहूं काल, मेरे है अतुल बल, मंत्र नवकार कौ।। विनोदीलाल की दृष्टि में नामस्मरण निर्भीकता और सुबुद्धि दोनों प्रदान करता है जगत मैं संजीवन है पंच नवकार मंत्र, बार बार जपो याहि, जिन न भुलाइये। सोवत उठत मुष धोवत विदेस जात, रन मैं भुजंग सिंघ देखि न रुराइये।। संकट न परै भूत रैन न छेरै आगि मांहि नहि जरै और समुद्र परै जाइये। ताकौं कहा करि सुर लोक है 'विनोदीलाल', जपो नवकार माल मंत्र सेती लव ल्याइये।। महा अंध कूप माहीं परे जगवासी जीव, ताके गहिवे इंजिनराज नव पाइ है। ताकै हाथ परि मंत्र नवकार कहु चढ़ि ऊपर ठां आयौ सुध मेरी पाई है। कुमति भगाई दई, सुमति प्रगट भई
SR No.538049
Book TitleAnekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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