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अनेकान्त/30 तृणवत्त मानकर एकाकी निर्जन भूमि से जाकर दैगम्बरी दीक्षा का अवलम्बन कर आत्ममार्ग में लीन हो जाते हैं। तत्त्वदृष्टि से देखा जावे तब ये पंचेन्द्रिय विषय दुखदायी नहीं हैं इन्हें भोगने की जो कषाय है वही दुखदायी है। इसी से दौलत राम जी ने लिखा है- 'आतम के अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाय'- अर्थात् आत्मा को दुख देने वाले विषय और कषाय हैं इनमें परणति न जाए अर्थात् जब हमारी विषयोपयोग भोग में प्रवृत्ति होती है उस प्रवृत्ति के कारण हमारे अन्तरंग में कषायभाव हैं और वे ही भाव हमें उनके भोगने में प्रवृत्त कराते हैं यदि अंतरंग में कषाय न हो, कदापि हमारी प्रवृत्ति उनके अर्थ न होवे। जब मूल कारण तो कषाय भाव है, विषय तो निमित्त कारण हैं और निमित्त कारण बन्ध का कारण नहीं होता है। बन्ध का कारण तो कषाय भाव है- इसी से कुन्दकुन्द स्वामी ने बंधाधिकार में यह लिखा है
वत्युं पडुच्च जं पुण अज्झवसाणं तु होई जीवाणं।
ण हि वत्थुदो बंधो अज्झवसाणेण बंधो दु।।' अर्थात् वस्तु अध्यवसान भावों के होने में निमित्त होती है, आवलम्बन के बिना अध्यवसान भाव नहीं होता यथा शूरवीर पुत्रों को उत्पन्न करने वाली माता के पुत्र को मैं रण में मारूं, ऐसा अध्यवसान भाव निर्भीक सैनिक के होता है, इस प्रकार भाव नहीं होता जो मैं बन्ध्या पुत्र को मारूँ क्योंकि बन्ध्यापुत्र अलीक वस्तु है। यदि वस्तु के अबलम्बन के बिना अध्यवसान भाव होने लगे तब 'मैं बन्ध्या के पुत्र को मारता हूँ' ऐसा भी अध्यवसान होने लगेगा सो असंभव है। अतः अध्यवसान बिना अवलम्बन के नहीं होता इसी पद्धति से उपाय की उत्पत्ति के प्रति विषय-निमित्त कारण है। यह निर्विवाद है।
-पूं. गणेशप्रसाद जी वर्णी द्वारा स्व-लिखित फोटो प्रति से
-केवली भगवान आदिनाथ के समय में अहम्मन्य कुछ लोगों के कारण ३६३ मत हो गए। बाद के काल में भी काष्ठा संघ आदि हुए। यदि इस काल में एक नया शौरसेनी संघ भी स्थापित हो जाय तो क्या आश्चर्य? अनुकूल सहकार जुटाकर कौन क्या कुछ नहीं कर सकता अर्थात् सबकुछ किया जा सकता है। भला, संस्थापकों में नाम लिखाने की चाह वैरागी के सिवाय किसे न होगी?
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