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अनेकान्त/29
आध्यात्मिक-चिन्तन इस संसार में अनादिकाल से आत्मा का शरीर से संबंध हो रहा है और इस रूप से उसके साथ जीव की तन्मयता हो रही है जो उसे अपना ही समझता है। वास्तव में शरीर पुदगल द्रव्य का पिण्ड है और निरंतर गलन-पूरण इसमें होता रहता है और यह जीव मोह के वशीभूत होकर उस गलन-पूरण में हर्ष और विषाद का आस्वाद लेता रहता है। सामान्य मनुष्य तो इस तत्व को समझता ही नहीं केवल पर्याय बुद्धि होकर अपने जीवन को व्यय कर देते हैं- जब हमने शरीर को अपना मान लिया तब हमारे अभिप्राय के अनुकूल यदि इसका परिणमन हुआ तब तो हमें सुख होता है और न होने पर दुःख होता है- प्रवृत्ति में मूल कारण कषाय है। जब हमें असाता के उदय में क्षुधा लगती है तब हम अरति कषाय के सहकार से उद्धिग्न हो जाते हैं और उसके दूर करने के अर्थ उन्हीं पदार्थों से उसकी निवृत्ति करना चाहते हैं जिन्हें हमने स्वाद समझ रखा है। यदि हमारे अभिप्राय के अनुकूल भोजन न मिले तब हमारे अंतरंग मे महती वेदना होती है जिसका अनुभव प्रत्येक भोजन करने वालो को है। यदि इसमें किसी को आशंका हो तब उसे निर्धन और सधन के भोजन की तारतम्यता से अपने ज्ञान को अभ्रान्त कर लेना चाहिए। इसी प्रकार पंचेन्द्रियों के विषय में अभ्रान्त सिद्धान्त का निर्णय कर लेना श्रेयस्कर है। अब यहां पर एक बात विचारणीय है- यह जो पंचेन्द्रियों के विषय हैं वह आनुषगिक दुखकर हैं स्वाभाविक पद्धति से न तो वह सुखकर ही हैं और न दुखकर हैं क्योंकि वह ज्ञेय हैं और तद्विषयक जो ज्ञान है वह भी न सुखकर है और न दुखकर है। इस सुख और दुख का मूलकारण कुछ और ही है। यदि वह हमारे ज्ञान में आ जावे तब हम बहुत अंशों में इस जाल से निवृत्त हो सकते हैं। परन्तु हम वहाँ तक जाते नहीं केवल विषयों को दुखकर और सुखकर जान उनके वियोग और संग्रह करने में अपना प्रयास लगा देते हैं तथा कुरंग राग के वशीभूत होकर व्याध द्वारा अपने प्राणों को विदीर्ण कराता है, मतंगज स्पर्शन इन्द्रिय के विषय स्पर्श द्वारा गर्त में पड़ता है, पतंग चक्षुरिन्द्रिय के विषय में लीन होकर अग्निज्वाला में भस्मसात् हो जाता है, भौंरा घ्राणेन्द्रिय के विषय गंध की लोलुपता से अपने प्राणों की आहुति कमलपुष्प में कर देता है इसी प्रकार से मीन मछली रसनेन्द्रिय के विषय के वश लोभ से वंशी द्वारा अपने प्राणों का नाश कर देती है। यह सब एक-एक इन्द्रिय के वशीभूत होकर अपने प्राणों को निछावर कर देते हैं। परन्तु जो जीव पंचेन्द्रिय के वश होकर अपनी प्रवृत्ति कर रहे हैं उनके दुख का कौन वर्णन करे? यही कारण है जो इस वेदना से मुक्त होने के लिए महापुरुष इसे