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अनेकान्त/28 रूप अनुग्रह ही उपग्रह कहा जाता है। स्वामी-भृत्य, आचार्य-शिष्य इत्यादि भाव से जो व्यवहार कियाजाए वह परस्पर उपग्रह कहा जाता है। स्वामी वित्तत्यागादि द्वारा और भृत्य हित प्रतिपादन और अहित निषेध के द्वारा उपग्रह करते हैं। आचार्य उभयलोक फलप्रद उपदेश दर्शन के द्वारा और उपदेश विहित क्रिया के अनुष्ठापन द्वारा शिष्यों के प्रति और शिष्य तदनुकूल व्यवहार करके आचार्य के प्रति अनुग्रह करते हैं। जिस प्रकार स्त्री पुरुष रतिक्रियाओं में युगपद् रूप से परस्पर उपकार करते हैं इसी प्रकार का नियम सुखादि उपग्रहों के लिए नहीं है।
अब तक टीकाकारों ने उपग्रह शब्द को बुद्धिगत करने के लिए जो उदाहरण दिए हैं वे सब केवल मनुष्यो को लेकर और वह भी इष्टकारक व्यापार के दिए हैं। इस कमी को दूर करने के लिए और विषय को और गहराई से समझने के लिए अकलंक आगे लिखते हैं-- "कोई जीव अपने लिए सुख उत्पन्न करके कदाचिद् दूसरे एक को, दोनों को या बहुतों को सुखी कर सकता है और कोई जीव अपने लिए दुख उत्पन्न करके दूसरे एक, दो या बहुतों को दुखी कर सकता है कदाचिद् दो, या बहुतों को या अपने लिए सुख अथवा दुख उत्पन्न करके दूसरे एक दो या बहुतों को सुख या दुख उत्पन्न कर सकता है इसी प्रकार इतरत्र भी जानना ।
इस स्पष्टीकरण से ही उपग्रह शब्द में अत्तर्निहित अर्थ बिल्कुल सही तौरपर ग्रहण किया जा सकता है। अन्य द्रव्य यथा धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल जीव और अजीव दोनो के लिए कुछ न कुछ करते हैं, किसी न किसी रूप में उनके काम आते हैं। जीव द्रव्य अन्य द्रव्यो के लिए कुछ नहीं करते, वे आपस में ही एक अन्य के लिए कुछ न कुछ करते है, वह कृत्य हितकर भी होसकता है और अहितकर भी और इस कृत्य का नाम ही परस्पर उपग्रह हैं । जीवों के संदर्भ में उपग्रह की अवधारणा बिना ‘परस्पर' लगाए मस्तिष्कगत नहीं होती। क्या हित और क्या अहित इसका निर्णय जीव अपनी अपनी धारणा या विचार या भाव शक्ति के अनुसार करते हैं।
इस विवेचन को यों समझने की कोशिश की जा सकती है। सिहादि अपने शावक के पालन (जीवन, सुख) के लिए मृगादि का वध (मरण, दुख) करके भोजन (सुख) जुटाते हैं, तो मृगादि तृणादि खा कर (दुख पहुंचा कर) अपना जीवन यापन (सुख) करते हैं । लौकिक, व्यावहारिक अर्थ में तृणादि मृगादि का और मृगादि सिंह शावकादि का हित (सुख) साधन (अनुग्रह) करते हैं और मृगादि तृणादि का और सिंहादि मृगादि का अहित (मरण, दुख) कारित करते है। किन्तु शुद्ध तात्त्विक दृष्टि से सिंह, शावक, मृग और तृण का यह परस्पर उपग्रह है। यह समझना भूल होगी कि एक जीव दूसरे जीव का केवल हित करते हैं किन्तु हित और अहित दोनों ही उपकार/उपग्रह/अनुग्रह की परिभाषा में सम्मिलित हैं।
इस प्रकार 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' यह सूत्र इस अनादि अनन्त जीव सृष्टि की वास्तविकता को उजागर करता है, एक शुद्ध तत्व दर्शन को अभिव्यक्त करता है; इसमें जीवन का कोई आदर्श न व्यक्त है न निहित । आदर्श तो सम्यक् चारित्र अर्थात् अहिंसा है।
-मंदाकिनी एन्क्लेव, नई दिल्ली