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अनेकान्त/27 'गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरूपकार:' का अनुवाद पं. महेन्द्रकुमार शास्त्री ने अकलंक के तत्वार्थ राजवार्तिक (1957) में यों किया है
“गति स्थिति क्रमशः धर्म अधर्म के उपकार है।'
स्पष्ट है कि महेन्द्रकुमार ने उपग्रह शब्द को ही छोड दिया है, शायद इसलिए कि उपग्रह और उपकार पर्यायवाची बताए गए हैं।
सर्वार्थ सिद्धि के हिन्दी अनुवाद (1971) में पं. फूलचंद ने इस सूत्र का अनुवाद यों किया_ “गति स्थिति में निमित्त होना, यह क्रम से धर्म और अधर्म द्रव्य का उपकार
परन्तु यह निमित्त होना' समझने में तब कठिनाई आती है जब हम यह समझना चाहें कि "जीवों का उपग्रह परस्पर है, यही जीवों का उपकार है तथा सुख दुख जीवन मरण भी जीवों के जीवकृत उपकार हैं।"
तत्त्वार्थ के स्वोपज्ञ कहे जाने वाले भाष्य और सिद्धगणि की टीका में इसका तात्पर्य यों समझाया गया कि हित का उपदेश और अहित का निषेध यह जीवों का परस्पर उपकार है परन्तु किसका क्या हित है क्या अहित इसका कोई जवाब नहीं मिलता।
विद्यानंदि ने श्लोकवार्तिक में उपग्रह का अर्थ (कुंदकुद की भांति) अनुग्रह किया है।
J.L. Jaini ने इस सूत्र का अनुवाद (1918) में यों किया हैThe function of souls (mundane souls) is to suport each other. S.A. Jaini का अनुवाद (1992) इस प्रकार हैThe function of souls is to help one another.
आचार्य महाप्रज्ञ ने इस सूत्र का अर्थ किया है, एक दूसरे का सहारा एकपदार्थ दूसरे पदार्थ का आलम्बन बनता है।
नथमल टॉटिया ने अनुवाद (1994) किया है Souls render service to one another. इस प्रकार उपग्रह के निम्न अर्थ पाए जाते हैं
1. निमित्त, 2 सहायता, 3. आलम्बन, 4. अनुग्रह, 5 अपेक्षा, 6 support, 7. Help, 8. Service.
यह इस बात का सूचक है कि विभिन्न चिन्तकों ने उपग्रह का अर्थ विभिन्न प्रकार से किया है परन्तु फिर भी यह समझना कठिन है कि एक प्राणी दूसरे प्राणी का नियम से किस प्रकार निमित्त, आधार, आलम्बन, आश्रय, सहायक, अथवा सेवारत होता है। धर्म, अधर्म, आकाश ये संसार में व्याप्त एक एक ही द्रव्य हैं किन्तु जीव हैं अनन्त उनके परस्पर उपग्रह भी अनन्त हैं। इसलिए, अकेले उपग्रह शब्द में अंतर्निहित उस व्यापक कल्पना को समझना कठिन होता है जो सब द्रव्यों के कृत्यों पर एकसा लागू हो, वजह इसकी यह है कि सूत्रकार कम से कम शब्दों का प्रयोग करके गागर में सागर भरना चाहता है। अतः प्रत्येक द्रव्य के हिसाब से उपग्रह शब्द का अर्थ ग्रहण करना होगा।
अकलंक का कहना है कि "द्रव्यों को शक्ति का आविर्भाव करने में कारण