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अनेकान्त/26 मरण ये उपग्रह
जीवों के उपकार है- परस्पर उपग्रह तथा सुख, दुख, जीवन, मरण, उपग्रह
तत्त्वार्थ सूत्र में यह चर्चा चल रही है द्रव्यों की परिभाषा व शुद्ध स्वरूप की। इसलिए ज़ाहिर है कि 'उपकार' शब्द "भला करना' इस अर्थ में प्रयुक्त न हुआ है, न हो ही सकता है। अतः उपकार शब्द का अर्थ है, किसी विवक्षत द्रव्य का कृत्य (Function) | यहां तक तो कोई कठिनाई नहीं आती। कठिनाई आती है उपग्रह का मतलब निकालने में।
जैसा ऊपर बताया गया है, उमास्वाति ने 'उपग्रह' शब्द सर्वप्रथम धर्म और अधर्म द्रव्यों के उपकार (कृत्य) के सिलसिले में प्रयुक्त किया है और यहीं से इसका मतलब समझना होगा। कुन्दकुन्द ने पञ्चास्तिकायसंग्रहसूत्र की गाथा 22 में लिखा है
जीवा पुग्गलकायाआयासं अत्थिकाइया सेसा
अमया अस्थित्तमया कारणभूदा हि लोगस्स। (जीव, पुद्गल, आकाश, धर्म, अधर्म ये पांच अस्तिकाय द्रव्य किसी के बनाए हुए नहीं है, अस्तित्व मय हैं और निश्चय ही लोक के कारणभूत हैं।) आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने इस 'समय' में न उपकार शब्द का ही प्रयोग किया है न ही उपग्रह का। उनने पञ्चास्तिकाय द्रव्यों को लोक का कारण माना है। टीकाकारों का कहना है कि कारणभूत का अर्थ है लोक इन्हीं से बना हुआ है। धर्म, अधर्म के सिलसिले मे कुन्दकुन्द लिखते हैं
उदयं जह मच्छाणं गमणानुग्गहयरं हवदि लोए
तह जीव पुग्गलाणं धम्म दव्वं वियाणेहि (85) (धर्म द्रव्य उसे जानो जो संसार में जीव व पुद्गलों के गमन में अनुग्रहकर उसी तरह होता है जिस तरह जल मछलियो के लिए।) टीकाकारों ने लिखा कि धर्म द्रव्य कारण रूप है किन्तु कार्य नहीं हैं न ही है प्रेरक, वह उदासीन अवस्था से निमित्तमात्र गति का कारणभूत है, गति का निमित्तपाय सहायी है। मछलियां जो जल के बिना चलने में असमर्थ है उनके चलने में जल निमित्त मात्र है। जीव पुद्गल के चलते धर्म द्रव्य आप नहीं चलता न उनको प्रेरणा करके चलाता है, आप तो उदासीन है परन्तु जीव पुदगल गमन करे तो उनको निमित्त मात्र सहायक होता है मेरे विचार से इस टीका का सार यह है कि धर्म और अधर्म द्रव्य लोकाकाश में सर्वत्र व्याप्त निष्क्रिय द्रव्य हैं और इनके बिना गति-स्थिति नहीं, यही इन द्रव्यों का अनुग्रह है। दरअसल जल की हलचल और मछली का गमन भी धर्म द्रव्य का ही अनुग्रह है।
हरिभद्र सूरि ने बताया कि धर्म द्रव्य गति उपकारी है, स्वयं गतिशील जीव पुदगलों का उपकारक अर्थात् अपेक्षा कारण है याने निमित्त कारण है, धर्म द्रव्य में होने वाले स्वाभाविक परिणाम की अपेक्षा करके ही चलने वाले जीवादि द्रव्य अपनी गति को पुष्ट करते हैं, स्वयं चलने वाले जीवादि द्रव्यों की गति में धर्म द्रव्य की अपेक्षा होती है इसलिए धर्म द्रव्य जीवादि की गति मे अपेक्षा कारण कहा जाता है।