SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त/17 ने निर्वाण सुख को प्राप्त किया है। इसलिए उत्तम योगभक्ति को धारण करना चाहिए 29 उपर्युक्त नियम किसके होता है, इस सन्दर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं "सुह असुहवयणरयणं रायादीभावबारणं किच्चा। अप्पाणं जो झायदि तस्स दुणियम हवे णियमा।।" नियमसार-120 अर्थात् जो शुभाशुभ वचन रचना और रागादि भावों का निवारण करके अपनी आत्मा का ध्यान करता है उसके नियम से नियम होता है। इस नियम के द्वारा निर्वाण प्राप्त होता है। वह निर्वाण कैसा है- जहाँ दुख, सुख, पीडा, बाधा, जन्म, मरण, इन्द्रियजन्य उपसर्ग, मोह, विस्मय, निद्रा, तृष्णा, क्षुधा, कर्म, नोकर्म, चिंता, आर्त्त, रौद्र, धर्म और शुक्लध्यान नहीं होते हैं। वहाँ केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख, केवलवीर्य, अमूर्तत्व, अस्तित्व और सप्रदेशत्व आदि स्वभाव गुण होते हैं । उपर्युक्त विवेचन से नियमसार के सन्दर्भ में निम्न तथ्य उभर कर सामने आते । आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार को "श्रुत' की संज्ञा दी है। 2 उन्होंने मोक्षमार्ग-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को नियम शब्द से अभिहित किया है। इस सन्दर्भ में नियम शब्द का प्रयोग यहाँ प्रथम एवं सर्वप्राचीन है। 3 मोक्षमार्ग का निश्चय और व्यवहार नय की दृष्टि से इतना स्पष्ट तथा विस्तृत विवेचन कुन्दकुन्द ने प्रथमबार किया है। 4 नियमसार में द्रव्यों को तत्वार्थ कहा गया है। 5 यहाँ ज्ञान का स्वभाव एवं विभाव के रूप में विभाजन करके विवेचन किया गया है। 6 आवश्यकों के नामों और क्रम में यहाँ अन्तर पाया जाता है।। 7. निर्वाण का इतना स्पष्ट विवेचन अन्य प्राकृत ग्रन्थों में नहीं हुआ है। इनके अतिरिक्त नियमसार में और भी कई बातें विचारणीय हैं, जिन पर यथावसर विचार किया जायेगा। -शोध सस्थान, वैशाली। सन्दर्भ : 1. णियभावणाणिमित्तं मए कदं णियमसारणामसुदं। नियमसार-187 2. नियमसार गाथा-187 की तात्पर्यवृत्ति संस्कृत टीका। 3. नियमसार ता. वृ. श्लोक-5, 6 एवं गाथा संख्या-1 की टीका। 4. नियमसार, गाथा-3
SR No.538049
Book TitleAnekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy