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________________ अनेकान्त/16 मनुष्य और देव पर्याय, मार्गणास्थान, गुणस्थान तथा जीवस्थान, बाल, वृद्ध, तरुण, राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया और लोभ नहीं हूँ, उनका कारण भी नहीं हूँ। उनका कर्ता, कारयिता तथा अनुमोदन कर्ता भी नहीं हूँ जो ऐसा भेदाभ्यास करता है, उसके चारित्र होता है। उस चारित्र को प्रशस्त करने के लिए प्रतिक्रमण, आदि कहे गये हैं 22 नियमसार में प्रतिक्रमण, प्रत्यख्यान, आलोचना, प्रायश्चित, समाधि और भक्ति का स्वरूप प्रतिपादित है। उपर्युक्त सबका कथन निश्चयनय की दृष्टि से किया गया है। जो अन्य के वश में नहीं होता है, वह अवश कहलाता है। उस अवश का कर्म आवश्यक कहा गया है। शुभाशुभ भावों में तथा द्रव्य-गण-पर्यायो में जो चित्त को लगाता है, वह अन्यवश कहलाता है। और जो अन्यवश है, उसके आवश्यक कर्म नही होता। जो परभावों को छोडकर निर्मल आत्मस्वभाव का ध्यान करता है, वह आत्मवश कहलाता है तथा उसी आत्मवशी के आवश्यक कर्म होता है। आवश्यक कर्म से जीव का श्रामण्य गुण परिपूर्ण होता है 23 जो समस्त वचन को छोडता है, रागादि भावों का निवारण करता है, विराधना छोड़कर आराधना में लगता है, अनाचार को छोडकर आचार में स्थिर होता है, उन्मार्ग से हटकर जिनमार्ग में स्थिर होता है, शल्यभाव से मुक्त होकर नि-शल्य भाव ग्रहण करता है, अगुप्तिभाव को छोड़कर त्रिगुप्तिगुप्त होता है तथा आत-रौद्र ध्यान से चित्त को हटाकर धर्म-शुक्लध्यान मे लगाताहै, वह प्रतिक्रमणमय होने से प्रतिक्रमण स्वरूप है, प्रतिक्रमण है । समस्त वचन विस्तार का त्याग करना, भविष्य के शुभ-अशुभ भावों का निवारण करके आत्मा का ध्यान करना तथा कषाय रहित, दान्त, शूर, व्यवसायी, संसार के भय से भयभीत होना और जीव एवं कर्म के भेद का अभ्यास करना, प्रत्याख्यान कहलाता है। कर्म और नोकर्म रहित तथा विभाव गुण और पर्यायों से भिन्न आत्मा का ध्यान करना, आलोचना है ।26 व्रत, समिति, शील, संयमरूप परिणाम, इन्द्रिय निग्रह का भाव, क्रोधादि कषायों के निग्रह का भाव तथा आत्मा के गुणों का चिन्तन करना, प्रायश्चित है। श्रेष्ठ तपश्चरण भी प्रायश्चित कहा गया है । वचनोच्चारण की क्रिया को छोडकर वीतराग भाव आत्मा का ध्यान करना तथा संयम नियम, तप, धर्म और शुक्लध्यान के द्वारा आत्मा का चिन्तन करना और समस्त त्रस एवं स्थावर जीवों के प्रति समता भाव रखना, समाधि है सामायिक है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र मे जो भक्ति करता है,उसके निर्वृत्ति भक्ति होती है, उस भक्ति से जीव असहाय गुण वाले निजात्मा को प्राप्त करता है। जो रागादि के परिहार में, सभी विकल्पों के अभाव में तथा तत्वों के चिन्तन में अपनी आत्मा को लगाता है, वह योगभक्ति से युक्त कहा गया है। इस प्रकार योगभक्ति करके ऋषभादि जिनेन्द्रों
SR No.538049
Book TitleAnekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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