________________
अनेकान्त/15 नपुंसकादि पर्यायें, संस्थान और संहनन नहीं हैं। व्यवहार नय की दृष्टि से उक्त सभी भाव जीव के माने गये हैं, किन्तु यथार्थ में ये सब परद्रव्य हैं, इसलिए हेय/त्याज्य कहे गये हैं 18
निश्चयनय से जीव/आत्मा निर्दण्ड, निर्द्वन्द्व, निर्मम निष्कल, निरालम्ब, नीराग, निर्मूढ, निर्दोष, निर्भय, निर्ग्रन्थ, निःशल्य, समस्त दोष रहित, निष्काम, निष्क्रोध, निर्मान, निर्मद, रूप-रस-गन्ध रहित, अव्यक्त, चेतना गुण वाला, अशब्द किसी लिंग द्वारा अग्राह्य और किसी भी आकार द्वारा अनिर्दिश्य होता है। ऐसे शुद्ध जीव या आत्मतत्व को उपादेय कहा गया है। उपर्युक्त हेय और उपादेय को संशय, विमोह, विभ्रमरहित जानना, सम्यग्ज्ञान है।
नियमसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने ज्ञान के दो भेद किये है- स्वभाव ज्ञान और विभाव ज्ञान | स्वभाव ज्ञान, केवल, इन्द्रियों की सहायता से रहित तथा असहाय होता है। वह तीनों लोको की, तीनों कालो की, समस्त द्रव्यो और उनकी समस्त पर्यायों को युगपत् जानता है, इसीलिए उसे अतीन्द्रिय, क्षायिक, प्रत्यक्ष या केवलज्ञान कहा गया है। इस ज्ञान का धारक जीव अर्हत्, सर्वज्ञ और केवली होता है। विभाव ज्ञान, सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान के भेद से दो प्रकार का है। मति, श्रुत, अवधि और मन पर्यय ज्ञान को सज्ञान या सम्यग्ज्ञान तथा कुमति, कुश्रुत और कुअवधि ज्ञान को मिथ्याज्ञान या अज्ञान कहा है।
निश्चयनय से आत्मा का ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है, अत यथार्थ ज्ञान केवल ज्ञान है। नियमसार मे कहा है कि- "णाणं जीवसरूवं तम्हा जाणेदि अप्पगं अप्पा"। (गाथा-170) अर्थात् ज्ञान जीव का स्वरूप है, इसलिए आत्मा अपनी आत्मा को जानता है। और भी कहा है- “केवल णाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पांण"। (गाथा-159) अर्थात् नियम से निश्चय से केवलज्ञानी अपनी आत्मा को जानता है
और देखता है । आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार मे केवलज्ञान का विस्तार से विवेचन किया है।
सम्यकचारित्र : नियमसार मे सम्यकचारित्र के लिए "चरण” और “चारित्रं" शब्द का प्रयोग हुआ है। इसमे व्यवहार और निश्चय नय के अनुसार सम्यकचारित्र का विवेचन है। व्यवहारचारित्र मे पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति और पॉच परमेष्ठियों का स्वरूप वर्णित है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच महाव्रत हैं। इनका निर्दोष पालन करने के निमित्त ईर्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेपण और प्रतिष्ठा- ये पॉच समितियां तथा मन, वचन और काय, ये तीन गुप्तियाँ कही गयी हैं। उपर्युक्त क्रियाओं का पालन करते हुए अरिहंत, सिद्ध, आचार्य उपाध्याय और साधु इन पाँच परमेष्ठियों का ध्यान करने से व्यवहारनय का चारित्र होता है।
निश्चयचारित्र के सन्दर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि मैं नरक, तिर्यंच,