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1 अनेकान्त/14
आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार में द्रव्यों को तत्वार्थ कहा है
___ "जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं। तच्चत्था इदि भणिदा णाणागुणपज्जएहिं संजुत्ता" || गाथा 9 अर्थात् जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल से छह विविध गुण-पर्यायो से संयुक्त तत्वार्थ कहे गये हैं। इनमें से काल को छोडकर शेष पाँचों अस्तिकाय हैं, क्योंकि इनमें कायत्व पाया जाता है। कालद्रव्य के प्रदेशों मे कायत्व नही होता, इसलिए उसे अस्तिकाय नहीं माना गया 4 काल एक प्रदेशी है, इसके प्रदेश राशि में रत्नों की भाँति पृथक्-पृथक् रहते है। काल द्रव्य जीवादि द्रव्यो के परिवर्तन का कारण है।
तत्व सात हैं- जीव, अजीव, आम्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । इनमें पुण्य और पाप जोड देने पर नौ पदार्थ बनते है। आस्रव और बन्ध तत्व में पुण्य एवं पाप का अन्तर्भाव हो जाता है। इसलिए सामान्य रूप से सात तत्व कहे जाते हैं। दर्शन प्राभृत में कहा है कि छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्वों के रूप का श्रद्धान करने वाला “सम्यग्दृष्टि है । अर्थात् उक्त तत्वो का श्रद्धान करना, व्यवहार सम्यग्दर्शन है। वह श्रद्धान अचल, अमलिन, गाढा और विपरीत अभिनिवेश रहित होना आवश्यक है 16
निश्चय नय के अनुसार जीव सम्यग्दर्शन आदि गुणो से युक्त होता है। इसलिए अपनी आत्मा का श्रद्धान, आत्मा का आत्मा में विश्वास करना, निश्चय सम्यग्दर्शन है। दर्शनप्राभृत में कहा है- “णिच्छयदो अप्पाणं (सदहणं) हवइ सम्मत्तं।" (गाथा-20) अर्थात् निश्चय से आत्मा का श्रद्धान करना, सम्यक्त्व है।
सम्यग्ज्ञान : “जो जाणइ सो णाणं (चारित्रप्राभृत-4) अर्थात् जो जानता है, वही ज्ञान है। उसके पांच भेद है- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन पयर्यज्ञान
और केवल ज्ञान । इनमें मति और श्रुत परोक्ष ज्ञान हैं। अवधि और मन पर्ययज्ञान विकल प्रत्यक्ष तथा केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। मति, श्रुत एवं अवधिज्ञान सम्यक
और मिथ्या दोनों होते हैं। पाँचों सम्यग्ज्ञान और तीनों मिथ्याज्ञान मिलकर ज्ञानोपयोग के आठ भेद कहे गये है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने सम्यग्ज्ञान के लिए "सण्णाण" शब्द प्रयुक्त किया है। उन्होंने संशय, विमोह और विभ्रम रहित तथा हेय और उपादेय तत्वों के ज्ञान को सम्यग्ज्ञान बताया है। नियमसार में कहा गया है कि जीव के स्वभावस्थान,मानापमानभाव स्थान, हर्षभाव स्थान, अहर्षभाव स्थान, स्थिति बन्धस्थान, प्रकृतिबन्ध स्थान, प्रदेशबन्धस्थान, अनुभागबन्ध स्थान, उदय स्थान, क्षायिकभाव स्थान, क्षयोपशमस्वभाव स्थान, औदायिक भावस्थान, उपशमस्वभाव स्थान, चतुर्गति भ्रमण, जन्म, जरा, मरण रोग, शोक, कुल, योनि, जीवस्थान, मार्गणा स्थान, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, स्त्री, पुरुष,