SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त/10 श्री नारायणन् के जिस तिस्कुणावाय का उल्लेख किया है, वह जैन मंदिर या और अन्य कोविलों के लिए एक आदर्श था। उन्हीं के शब्दों में, "Tirukknavay, which formed the model for these pallikal was also a Jain temple.' (Reinterpretations in South Indian History, p.69. 1977) वंचियर समाज के संबंध में एक अन्य शिलालेख में भी उल्लेख आया है। किसी समय यह जाति दक्षिण भारत की एक प्रमुख व्यापारी जाति थी और जैनधर्म की अनुयायी थी। एडगर थूर्सटन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Castes and tribes of South India में यह उल्लेख किया है कि वळंचियर जाति के कुछ लोग अपने नाम के आगे जोति नगरत्तर (प्रकाशयुक्त नगर के निवासी) तथा विरूविलककु अर्थात् पीकादीपों के निवासी जैसी उपाधियों का प्रयोग करते थे। शायद वे महावीर निर्वाण की उस स्मृति को संजोए हुए थे जो कि उस समय असंख्य द्वीप प्रज्वलित किएजाने से संबंधित हैं इस संबंध में डॉ. कुरुप का कथन विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है- "Such a prosperous community which had been a patron of Jainism was later merged in the hierarchical structure of Hindu society, the Vanchiyars are known even by their caste naeNavutyan or Velakkattaalavan (विळक्किततसवन) which means they had later become barbers to the Nayars and the members of the high caste. Many of them called themselves nayars in South malabar and returned to the main caste of Nayars. Then reduction of a prosperous community to penury and its nenial occupation might have been due to their non-adherence to a Brahmanical religion.' (p.4, Aspects of Kerala History and Culture). उपर्युक्त उदाहरण से सहज ही संभवतः यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आलत्तर और उसके आसपास के क्षेत्रों में व्यापार करने वाले जैन काफी संख्या में थे, उनके अनेक मंदिर या कोविल थे और विभिन्न स्थानों के मंदिरों आदि की व्यवस्था, उनका रख-रखाव आदि कार्य भी अनेक स्थानों की मिली-जुली परिषद या सभा किया करती थी। आलत्तर के उपर्युक्त शिलालेख में पांच का उल्लेख है। जैनधर्म के अनुसार "अपुण्यमव्रतैः पुण्यं व्रतैर्मोक्षस्तयोव्ययः (समाधिशतक 83) अर्थात् अव्रत यानी व्रतों कापालन नहीं करना अपुण्य या पाप है और व्रतों का पालन करना पुण्य है तथा दोनों प्रकार के कर्मों का नष्ट होना मोक्ष है। व्रत में निम्नलिखित सम्मिलित हैंहिंसा का त्याग, सत्य, चोरी का त्याग, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । मूलाराधना नामक आचार संबंधी ग्रंथ में कहा गया है- हिंसाविरदि सच्चं अदत्तपरिवज्जणं च बंभ चं संगविमुत्तों य तहा महब्बया पंच पण्णत्ता। गृहस्थ इनका यथाशक्ति पालन करते हैं तो ये अणुव्रत कहलाते हैं । मुनि इनका पूर्णरूप से पालन करते हैं तो ये महाव्रत कहे जाते हैं। इनसे विपरीत आचरण अव्रत या पाप है। शिलालेख में इन्हीं पांच पापों की ओर संकेत किया गया है। वळंचियर जाति के जैन इनसे बचते रहे होंगे।
SR No.538049
Book TitleAnekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy