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अनेकान्त/91
पुरातत्त्व विभाग ने यहां के इस भग्न मंदिर से पार्श्वनाथ और महावीर की सुंदर प्रतिमाएं ढूंढ निकाली हैं। इनका विवरण श्री एन जी उन्नितन ने जर्नल ऑफ इंडियन हिस्ट्री में किया है जो निम्नप्रकार है। ___ महावीर स्वामी की प्रतिमा पर्यकासन में है और एक साधारण किंतु सुनिर्मित भद्रासन पर विराजमान है । मूर्ति सौदर्यपूर्ण है और उसके अंग-प्रत्यंग उचित अनुपात में सुंदर ढंग से गढे गए है। वह आत्मध्यान में लीन दिखाई गई है। चेहरा गोल है और कान लंबे तथा कुछ विस्तृत हैं एवं कंधे चौकोर हैं तथा शरीर का अंकन कलात्मक है। मूर्ति पर श्रीवत्स जैसा लांछन या पहिचान चिन्ह नहीं है। उसका अंकन तरूण अवस्था का है जो कि जैन मूर्ति कला के सिद्धांतों के अनुसार है। उस पर छत्रत्रयी है। महावीर स्वामी का पहिचान चिन्ह सिंह भी अंकित है। प्रतिमा के दोनों ओर चंवरधारी गंधर्यों का अंकन किया गया है। मूर्ति के अनुपात, कला आदि से अनुमान होता है कि वह मूर्ति नौवीं या दसवीं श्ताब्दी की होगी। महावीर के पादमूल में अपने दोनों पंजे ऊपर उठाए सिंह भी प्रदर्शित हैं।
पार्श्वनाथ की कार्यत्सर्ग प्रतिमा अच्छी हालत में नहीं है। वह संपूर्ण तो है कितु कहीं-कहीं से चटक गई है। मूर्ति पर जैन प्रतिमा के सामान्य चिन्ह जैसे श्रीवत्स आदि नहीं हैं। वह वस्त्रहीन है एवं ध्यानस्थ है। उसका चेहरा गोल है, कंधे सीधे हैं। अंग-प्रत्यंग का अंकन कलात्मक है। प्रतिमा के ऊपर तीन फणों की फणावली है तथा पार्श्वनाथ के शासनदेवता और शासनदेवी धरणेंद्रएवं पद्मावती का अंकन भी नहीं है। वैसे उपर्युक्त देवी-देवता का पार्श्व के साथ अंकन आवश्यक नहीं है।
महावीर और पार्श्व की ये दोनों मूर्तियां त्रिश्शूर म्यूजियम या संग्रहालय में रख दी गई हैं। वहां से प्राप्त शिलालेख भी इस सग्रहालय में सुरक्षित है। केरल के पुरातत्व विभाग को मंदिर के स्तंभ, बीम आदि इधर-उधर बिखरे पड़े मिले थे। वहां जो शिलालेख था, वह भारत सरकार के पुरालेखविद या एपिग्राफिस्ट को 1995 में प्राप्त हुआ वह प्रचार लिपि वट्टेलूत्त में है। इस शिलालेख के प्रारंभ में स्वस्ति शब्द का प्रयोग हुआ है। कालीकत्ता विश्वविद्यालय के प्रो नारायणन ने इस अप्रकाशित लेख का जो मूल पाठ दिया है, उसके अनुसार वह शिलालेख 21 पंक्तियों का है। वह संपूर्ण नहीं है और 23 स्थानों पर त्रुटित है। इस लेख में न तो कोई संवत् आदि प्रतीत होता है और न ही किसी राजा या राजवंश का नाम । संभव है वह जानकारी मिट गई हो फिर भी श्री नारायण ने वह अर्थ निकाला है कि वह लेख तिरुक्कुणावाय तथा अन्य अनेक संस्थाओं की सभा में किया गए एक करार है। इसमें वंकचियर समाज की पककियक, जो कि हिंदू-भिन्न मंदिर होते थे, तथा उनकी संपत्ति के संबंध में एक करार है। उसमें कहा गया है कि जो इसका उल्लघन करेगा, वह गो हत्या तथा पांच पापों का दोषी होगा। स्मरण रहे, जैनधर्म में पांच व्रतों के विरूद्ध आचरण को पांच पापों की संज्ञा दी गई है।