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________________ अनेकान्त/5. मलयालम में प्रस्तुत करने वाले लेखक श्री वालय ने एक महत्वपूर्ण सूचना यह दी है कि जैन धर्मावलबियों की प्रार्थना में इस प्रकार उल्लेख है- "इज्जण सट्टरू, लक्कप्प सट्टरू, चिक्कुपायप्प माणिक्कपट्टण समस्त श्रावक श्रावकीय निरग यशोवृद्धि पुण्योवृद्धि शांति निमस्यार्थ पाहि!" इस प्रकार की प्रार्थना प्रचलित होने में तथा इस मंदिर की लोकप्रियता में अवश्यक ही कुछ शताब्दियों का समय लगा होगा। अतः इस कोविल की प्राचीनता में संदेह की गुंजाइश नहीं जान पड़ती। केरल सरकार के एक प्रकाशन में यह उल्लेख है कि चुण्णांपुतरा (जैनमेडु) के निकट जो जैन कोविल है, वह इस तथ्य को उजागर करता है कि पांच सौ वर्ष पूर्व मैसूर के राजा ने जब धार्मिक अत्याचार किए थे तब उन अत्याचारों से बचने के लिए पालघाट के राजा ने लोगों को उदारतापूर्वक आश्रय दिया था। स्पष्ट है, यहां प्रभावशाली और बहुसंख्य जिनधर्मी रहे होंगे और उन्होंने अपने साधर्मी बंधुओं की सहायता स्वयं भी की होगी और अपने राजा से भी करवाई होगी। किंतु इतिहास ने फिर करवट ली। सन् 1752 में कालकट के शासक जामोरिन ने पालघाट पर आक्रमण किया। तब यहां के शासक ने हैदरअली से सहायता मांगी। उसने सहायता तो की मगर कुछ ही समय में उसने इस प्रदेश पर अपना कब्जा जमा लिया। कहा जाता है कि हैदर के हमले के समय यहां के जैन भाग कर अन्यत्र चले गए ताकि उनका धर्म परिवर्तन नहीं किया जा सके। हैदरअली के बाद उसका पुत्र टीपू सुल्तान उससे भी आगे बढ गया। उसने मंदिर की नक्काशीदार दीवालों को तुडवा दिया और उसकी ग्रेनाइट सामग्री का उपयोग अपने यहां जो किला बनवाया उसमें किया। इस तथ्य का उल्लेख केरल हिस्ट्री असोसिएशन द्वारा प्रकाशित ग्रंथ केरलचरित्रम् में भी है। वर्तमान मंदिर या कोविल से लगभग दो फाग की दूरी पर मुत्तुप्पट्टणम् नामक एक प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र था। वहां के एक जैन मंदिर को टीपू सुल्तानने पूरी तरह नष्ट कर दिया। अब यह स्थान कुल्लमपुरम् के नाम से जाना जाता हैं। इस समय उपर्युक्त मंदिर के अवशेष के रूप में केवल बीलपीठ और कुछ पाषाण खड ही शेष बचे हैं। इतिहासकारों का मत है कि यहां जैनों की अच्छी आबादी रही होगी। श्री वालय के अनुसार वे खंडहर 200 मीटर उत्तर की ओर एक बलिपीठ के अवशेष में विलीन हैं। इससे यह आभास होता है कि यहां जैनों की दो बडी बस्तियां थीं और एक हजार सौ से भी अधिक वर्षों पूर्व यहां जैनमत का खूब प्रचार था। माणिक्यपट्टणम् या मुतुप्पट्टणम् में मोतियों का व्यापार होता था। कहा जाता है कि टीपु सुल्तान के आक्रमण से पहले वहां 250 जैन परिवार निवास करते थे। बीसवीं सदी के प्रारंभ में पालघाट में जिनधर्मियों की आबादी में कमी हो गई। सन् 1908 में प्रकाशित मलबार गजेटियर में यह सूचना है कि चंद्रनाथ मंदिर से पालघाट के पंद्रह और छह मील की दूरी पर स्थित मुंडूर नामक स्थान के जैनपरिवार
SR No.538049
Book TitleAnekant 1996 Book 49 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1996
Total Pages118
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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