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अनेकान्त/35
णमोकार मन्त्र का (शब्दशास्त्रीय) मान्त्रिक विवेचन
__-पं. अरूण कुमार शास्त्री मन् धातु में ष्ट्रन् प्रत्यय के सयोग से मन्त्र शब्द व्युत्पन्न हुआ है। अर्थात् जिनका मनन/चिन्तन किया जाये उन्हे मन्त्र कहते हैं। विशिष्ट प्रकार के स्वर व्यञ्जनों के समाहार का नाम मन्त्र है । मन्त्रशास्त्र के अनुसार प्रत्येक वर्ण में भिन्न प्रकार की आकर्षण विद्युत विद्यमान होती है जिसके कारण विधिपूर्वक पारायण द्वारा मन्त्र सिद्धि प्राप्ति का साधक होता है वर्णो की शक्ति के साक्षात्कर्ता तपोपूत आचार्य/ऋषि इन वर्णो का यथायोग्य रीति से सकलन/ग्रन्थन कर मन्त्रों को चमत्कारिक व प्रभावशाली बनाते है। जैन दर्शन की परम्परा के आचार्य भगवन्तों ने यन्त्र मन्त्र के क्षेत्र मे स्वात्मोन्मुखी तपस्या से प्राप्त अलौकिक उपलब्धियों के बलबूते पर उपासना प्रणाली को शक्तिशाली एवम् ऊर्जा सम्पन्न बना दिया है। परिणामस्वरूप जैन परम्परा मे विद्यानुवाद, भैरव पद्मावती कल्प, ऋषिमण्डलकल्प, णमोकार कल्प, ज्वालामालिनी कल्प ग्रन्थों के अतिरिक्त जैनाचार्यों ने मन्त्र यन्त्र समन्वित उवसग्गहर स्तोत्र, (भद्रबाहु स्वामी) कल्याण मन्दिर स्तोत्र (आ कुमुदचन्द्र) विषापहार स्तोत्र जिनचतुर्विशतिका (भूपाल कवि) आदि अनेकों स्तोत्रों की रचना कर मन्त्रविद्या की श्रीवृद्धि की है। उक्तानुक्त जैन परम्परा के सभी मन्त्र व मान्त्रिक स्तुतियां णमोकारमन्त्र पर आधारित है । 'विद्यानुवाद' ग्रन्थ मे सभी बीजाक्षरों एवम् मातृका ध्वनियों की उत्पत्ति णमोकारमन्त्र से ही बतायी गयी है। उक्त श्लोक मन्त्र की अनादिनिधनता को बतलाता है। अनादिकाल से अब तक मोक्ष गए अनन्त मुनियों के द्वारा इसी मन्त्र का पारायण/स्मरण/ध्यान किया गया है। तीर्थंकर की दीक्षा के समय देव तथा लौकान्तिक देव वैराग्य भाव की वृद्धि के लिए इसी महामन्त्र का ध्यान करते है। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में लिखा है
ध्यायतोऽनादि संसिद्वान्, वर्णानेतान् यथाविधिः । एनमेव महामन्त्र समाराध्येह योगिनः।। त्रिलोक्यापि महीयन्तेऽधिगताः परमां श्रियम्।।
प्रस्तुत लेख में मान्त्रिक/शब्दशास्त्रीय दृष्टिकोण से इस महिमावान् महामन्त्र का अध्ययन अपेक्षित है। शाब्दिकों ने शब्द को अनादिनिधन, जगत् की प्रक्रिया का आधार तथा ब्रह्मस्वरूप माना है। (वाक्यपदीय-1/1) न्यायवैशेषिकदर्शन के आचार्य शब्द को आकाश का गुण मानते हैं, परन्तु यह मान्यता अधुनातन वैज्ञानिक प्रयोगो द्वारा निर्मूल सिद्ध हो चुकी है। मनोविज्ञान के अनुसार मन के तीन कार्य समृति कल्पना व चिन्तन शब्द के द्वारा सम्पन्न नहीं हो सकते । वैयाकरणों ने शब्द के दो रूप स्फोट व वैखरी माने हैं तथा मतभेद से अन्य वैयाकरण नागेशभट्ट ने परा, पश्यन्ती, मध्यमा, और वैखरी ये चार रूप भी माने हैं।
जैन आचार्य उमास्वामी ने तत्वार्थसूत्र अध्याय 5 सू. 24 में लिखा है कि शब्द