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अनेकान्त/36
चाहिए। इतिहास और पुरातत्व की ऐसी बहुमूल्य संपदा यो ही अकारण नष्ट हो जावे | यहा की सारी पुरा सपदा मुरैना के सग्रहालय तथा ग्वालियर के गूजरी महल सग्रहालय मे व्यवस्थित है।
दूब कुण्ड आजकल एक छोटा सा उपेक्षित आदिवासी ग्राम है। पर अब से लगभग नौ सौ वर्ष पूर्व यह एक प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र था। कच्छप घाती शासकों की यह राजधनी थी, यहा बडे बडे व्यापारी वणिक जैन श्रेष्ठी जन रहा करते थे, इन श्रेष्ठियों ने सामूहिक प्रयास से यहां एक विशाल जिनालय का निर्माण कराया था, जिनालय का क्षेत्रफल ७५० फुट लम्बा तथा ४०० फुट चौड़ा वर्गाकार था, इसमें एक विस्तृत शिलालेख संवत् ११४५ में उत्कीर्ण किया गया था। शिलालेख की भाषा विशुद्ध सस्कृत एव अलकारिक है। इसमे सुन्दर पैतीस श्लोक जिनकी अलकारिक छटा से मन मुग्ध हो जाता है ।अत में गद्य भाग है जो दान पत्र सा प्रतीत होता है और सरल सस्कृत गद्य मे है। यह शिलालेख सन् १८६६ ई. मे कप्तान श्री डब्ल्यू.आर. मैकबिली को इस मंदिर के भग्नावशेषो में मिला था, होसकता है यह ग्वालियर (म्यूजियम की सम्पत्ति हो)।
इस शिलालेख को लाडबागड सघ के आचार्य शान्तिषेण के शिष्य विजयकीर्ति ने रचा था तथा श्री उदयराज ने लिखा था और "तल्हण" नामक शिल्पी ने भाद्रपद शुक्ला तृतीया संवत् ११४५ सोमवार के दिन इसे उत्कीर्ण किया था। इस समय कछवाहा शासक विक्रमसिह का शासन काल था। राजा विक्रम सिंह ने इस मदिर के लिए महाचक्र नामक ग्राम रजकद्रह नामक सरोवर तथा बावडी सहित वगीचादान मे दिया था। साथ ही एक गोणी = ३२ सेर उपज पर एक विशोपक (तत्कालीन सिक्को) करके रूप में स्वीकृत किया था तथा चार गोणी गेहूँ बोया जाने वाला खेत दान मे दिया था और मदिर में प्रकाश आरती के लिए और साधुओ के मालिश मर्दनादि हेतु दो करघटिका (एक प्रकार का माप) तैल भी दान में देने की घोषणा की थी। उपर्युक्त आमदनीसे मदिर की जीर्णोद्धार और मरम्मत निर्माण आदि भी कराया जा सकता था। अब हम पूरे शिलालेख का श्लोकानुसार विस्तृत विवेचन प्रस्तुत करते है।
पहले श्लोक मे भ, ऋषभदेव स्तुति है जिसका बहुत सा अश त्रुटित एवं खण्डित है। दूसरे में भ. शान्तिनाथ की अलकारिक भाषा मे वंदना की गई है। तीसरे में चन्द्र प्रभु भगवान की प्रार्थना की गई है। चौथे में महावीर स्वामी को प्रणाम किया गया है। पाचवे में गौतम गणधर को नमन किया गया है, छठे में पकजवासिनी श्रुतदेवता (सरस्वती) की वदना की गई है।