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अनेकान्त/19
४. प्राकृत विघा, वर्ष ६, अंक २ जुलाई-सितम्बर, १६६४, पृष्ठ ४२ ४३ पर पूज्य
आचार्य विद्यानंदजी महाराज ने यह मत व्यक्त किया था कि वस्तुतः जनबोली
प्राकृत मागधी ही रही है। ५. पिशल के हिन्दी अनुवादक डा० हेमचन्द्र जोशी ने अपने आमुख पृष्ठ ३
पर लिखा है कि भारत की किसी आर्यभाषा और विशेषकर नवीन भारतीय भाषाओं पर कुछ लिखने के लिए केवल भारत की ही प्राचीन मध्यकालीन नवीन आर्यभाषाओं के ज्ञान की ही नहीं अपितु ग्रीक, लेटिन, गौथिक, प्राचीन स्लैविक, ईरानी, आरमीनीयन आदि कम से कम बीस पच्चीस भाषाओं के भाषाशास्त्रीय ज्ञान की आवश्यकता है। देखें : डॉ० हेमचन्द्र जोशी द्वारा अनुवादित प्राकृत भाषाओं का व्याकरण जो १६५८ मे बिहार राष्ट्रभाषा
परिषद् द्वारा प्रकाशित हुआ है। ६. बौद्ध आगम का नाम ही पाली है- किन्तु उनकी भाषा मागधी है न कि
अर्द्ध मागधी । ग्रंथों के नाम से बाद में उस मागधी का नाम भी पाली पड
गया। ७. समय सार, कुन्दकुन्द भारती, नई दिल्ली, गाथा १-८-८
जहण वि सक्कमणज्जों अणज्ज भासं विणा दु गाहेदूं
तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं। टीकाकारो ने यह बताया है कि ये अनार्य वे है जिन्हें म्लेच्छ कहा जाता है। तत्वार्थसूत्र के सूत्र आर्यम्लेच्छाश्च ३।३६ की टीका में पूज्यपाद ने सर्वाथसिद्धि में इनका विशद विवरण दिया है जिनमे अन्तर्वीपज म्लेच्छ, शक, यवन, शबर और पुलिन्दादिक शामिल है। जाहिर है कि आज की भाति ये म्लेच्छ संख्या में आर्यों से कम नहीं रहे होंगे और उनकी भाषा को नजरअंदाज करना मुश्किल काम है। तात्पर्यवृत्ति में जयसेन ने एक ब्राह्मण का म्लेच्छो की बस्ती में जाने का वर्णन किया भी है। ८.
जैन, डॉ० सुदीप, संपादकीय लेख प्राकृत विद्या, वर्ष ६ अंक ४, जनवरी मार्च, १६६५ यदि प्रदेश के अनुसार प्राकृत भाषा का नामकरण सही हुआ है तो उपलब्ध साहित्य व आगम की भाषा की विशेषताओं के कारण नामकरण
क्योंकर उचित नहीं है? ६. वररूचि, प्राकृत प्रकाश, द्वादश परिच्छेद, सूत्र २.
प्रकृति संस्कृतम्, शौरसेन्या ये शब्दास्तेषां प्रकृति संस्कृतम्। १०. पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, अनुवादक डॉ० हेमचन्द्र जोशी, बिहार
राष्ट्रभाषा परिषद् १६५८, पृष्ठ ६३-६४, पैरा ४४ । प्राकृत में द्विवचन व सम्प्रदान कारक का लोप भी इसी ओर संकेत करता है।