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अनेकान्त/20
११. रविषेण, पदमपुराण, भा० ज्ञानपीठ, १६४४, श्लोक २४ ११ । १२. उपरोक्त टिप्पण २, लेख की तालिका व उसके नीचे का नोट देखें । दण्डिन्
के काव्यादर्श (१।२४) में भी लिखा कि महाराष्ट्रामयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं
विदु.। सागर सूक्ति रत्नानां सेतुं बंधादि यन्मयम् । १३. उपरोक्त टिप्पण ६। १४. उपरोक्त टिप्पण १०, देखें पृष्ठ ८, पैरा ६। १५. सबसे पहले चण्ड (१५ वीं सदी) ने प्राकृत लक्षणम् में स्पष्ट ही महाराष्ट्री,
जैन महाराष्ट्री, अर्धमागधी और जैन शौरसैनी का वर्णन किया है। इसके - बाद हरमेन जकोबी आदि विद्वानों ने भी इसे स्वीकार किया है।
डॉ शशिकान्त का मंतव्य है कि महावीर के नाम से उनके ५००-१००० वर्षों बाद जो कुछ सरक्षित किया गया उसकी भाषा संरक्षण कर्ताओं की भाषा है, स्वयं महावीर की नहीं। उसे आर्य या आगमिक कहना उचित नहीं। जैन दिगम्बर आगमों की भाषा शौरसेनी है और श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी और जैन महाराष्ट्री है। देखे, शोधादर्श अंक २६, जुलाई १६६५, पृ १७०-१७३ पर प्रकाशित 'भगवान महावीर की प्राकृत' शीर्षक लेख । १६ पन्नवणा सूत्र की टीका में मलयगिरी ने तो सूरसेन की राजधानी पावा
कहकर बिहार के अन्तर्गत सूरसेन देश को माना है । मलयगिरी ने जमाने
मे यही धारणा रही होगी १७. प्राकृत विद्या, वर्ष ७, अंक। अप्रैल-जून, १६६५ सम्पादकीय पृष्ठ ६।
पक आचार्य महाराज की सीख
___"हमको कोई भी ग्रन्थ लिखते समय अथवा किसी ग्रन्थ की टीका करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना आवश्यक है कि एक भी अक्षर परम प्रामाणिक जिनवाणी (जो कि कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, पूज्यवाद, अकलकदेव, वीरसेन, विद्यानन्दि आदि आचार्यों के आर्ष ग्रन्थों में विद्यमान है) के विरूद्ध न हो । प्रत्येक शब्द उन आर्ष ग्रन्थों के अनुसार हो, ऐसा ध्यान रखकर गहरे अध्ययन के साथ जब हम कुछ सावधानी से लिखेंगे तब हमारा लिखा हुआ लेख या ग्रन्थ प्रामाणिक होगा, स्व-पर-कल्याणकारी होगा और हमारी स्वच्छ कीर्ति का दृढ स्तम्भ होगा। विकृत-ग्रन्थों का पठन, पाठन, अवलोकन, स्वाध्याय, ग्रन्थ भण्डारों मे रखना निषिद्ध होना चाहिए जिससे भोले-भाले, अपरिचित स्त्री पुरुषों का अहित न होने पावे।"
- दि० जैन साहित्य में विकार ..... ........... .......