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________________ अनेकान्त/11 जन सामान्य को बताना आवश्यक है। सो हमने सप्रमाण स्पष्टीकरण किया था। यह समाज को भडकाने या उसमें विसंवाद फैलाने की कोई बात नहीं थी। विसंवाद फैलाने और समाज को भडकाने की बात तो तब होती जब हम किसी को सत्याग्रह करने, घिराव करा देने अथवा कानूनी कार्यवाही करने की बात को उछालते। हमने तो साधारण रीति से न्यायोचित मार्ग समक्ष रखा । हम इन बातों को उछालना नही चाहते, जो लिखते हैं वह सप्रमाणलिखते हैं, बिना किसी आर्थिक सहयोग के। अब हम 'अरहताणं' की बात ही नहीं लिखते वरन्, पूरे मूल मंत्र के प्रसंग को उठाते हैं कि-- दिगम्बर आगमों की मूल परम्परित प्राचीन भाषा को शौरसेनी घोषित करने वाले व्याकरणज्ञ व्यक्ति, अपनी मान्यता की परख का मंगलाचरण मूलमंत्र के शब्द रूपो के चिन्तन से ही करें कि उसमें कितने पद शौरसेनी व्याकरण सम्मत है? और णमोकार मत्र क्यो दिगम्बरो द्वारा मान्य है? पाठक सोचे। 'णमो अर (अरि) हंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूण।।' उक्त मूलमत्र जैनियो के सभी सम्प्रदायों में मान्य है। प्राय अन्तर केवल 'न' और 'ण' का है। जहाँ दिगबरो मे ‘णमो' प्रचलित है, वहीं श्वेताम्बरो मे प्राय 'नमो' बोला जाता है। व्याकरण मान्यता वालों की दृष्टि से देखा जाय तो 'जितने भी प्राकृत व्याकरण है, उनमे सस्कृत शब्दों से प्राकृत बनाने के नियम दिए है- (प्राकृत विद्या ६/३) के अनुसार ऐसा शौरसेनी व्याकरण का कौन-सा सूत्र है जो 'न' को 'ण' कर देता हो? अन्य प्राकृतो में तो 'न' को 'ण' करने के हेमचन्द्र के सूत्र 'वाऽऽदौ' ८/१/२२६ और 'नोणः' ८/१/२२८ और प्राकृत प्रकाश का सूत्र 'नोण सर्वत्र' २/४२ है। क्या शौरसेनी वालो को अपने में इनका हस्तक्षेप स्वीकार है? 'आइरियाणं' शब्द संस्कृत के आचार्य शब्द से बना है। शौरसेनी के विशेष सूत्रो में ऐसा कौन सा सूत्र है जो 'चा' को 'इ' में बदल देता है? अन्य प्राकृत नियमो मे हेमचंद्र का 'आचार्ये चोडच्च' ८/१/७३ सूत्र है जो 'चा' को 'इ' मे बदल देता है। क्या शौरसेनी वालो को अपने मे इसका दखल स्वीकार है? तीसरा शब्द 'लोए' है (जिसे लोगे भी बोला जाने के उपक्रम है) क्या शौरसेनी मे 'क' को 'ग' करने का कोई सूत्र है? हॉ, अपभ्रंश मे 'अनादौ स्वरादनुक्तानां क-ग-त-थ-प-फां ग-घ-द-ध बभाः' हेम ८/४/३६६ सूत्र अवश्य है जो 'क' को 'ग' कर देता है। क्या शौरसेनी में उसका दखल स्वीकार है? व्याकरण के नियम से लोये बनने का तो प्रश्न ही नहीं। यत. लुप्त व्यंजनके स्थान पर 'य' श्रुति होने का विधान वहीं है जहॉ लुप्त व्यंजन के पूर्वमें 'अ'
SR No.538048
Book TitleAnekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1995
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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