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अनेकान्त/10 कैसे कहा जा सकता है? यह तो मिला-जुला भाषा रूप है। ऐसे ही पिछले दिनों कुन्दकुन्द भारती की ओर से एक शौरसेनी प्राकृत कवि गोष्ठी कराई गई थी। उसमें शौरसेनी कवित पाठ कराया गया। यद्यपि हमे वह कविता संग्रह अप्राप्त रहा। फिर भी 'प्राकृत विद्या' --- वर्ष ७ अक १ मे शौरसेनी नाम से प्रचारित एक रचना "विज्जाणण्द थुदि' शीर्षक से हमने देखी। उक्त शीर्षक ही मात्र शौरसेनी में नहीं है इसमे भी दो भाषाएँ गर्भित है। सस्कृत के 'विद्यानन्द स्तुति' रूप से प्राकृत रूप 'विज्जाणंद थुदि' बना है । तथाहि- प्राकृत प्रकाश के सूत्र ३/२७ 'त्याथ्या द्याम् चछजाः' से 'द्य' को 'ज' हुआ और सूत्र ३/५० 'शेषादेशयोर्द्वित्वमनादौ' से ज को द्वित्व हुआ। उक्त दोनो सूत्र महाराष्ट्री (प्राकृत) के है। सूत्र २/४२ 'नोणः सर्वत्र' से न का ण हुआ तब 'विज्जाणण्द' बना। 'स्तुति' शब्द मे हेम सूत्र ८/२/४६ ‘स्तेवे वा' महाराष्ट्री (प्राकृत) से 'स्त' को 'थ' हुआ । और केवल शौरसेनी के एक नियम मात्र से ति को दि होने से 'थुदि' शब्द सपन्न हुआ। ऐसे में शौरसेनी का मात्र एक नियम प्रयुक्त होने से (शेष सपूर्ण शब्द रूपो मे सामान्य प्राकृत होने) से पूरे 'विज्जाणण्द थुदि' रूप को मात्र शौरसेनी का कैसे कहा जा सकता है? अर्थात् नहीं कहा जा सकता। इतना मात्र ही है कि 'दि' रूप शौरसेनी का स्वय मे बोध दे रहा है कि मात्र मैं शौरसेनी का रूप हूँ। ऐसे ही 'कुन्दकुन्द भारती' से प्रकाशित कथित शौरसेनी ग्रन्थ “णियमसार' मे 'कुन्दकुन्द आचार्य के लिए प्राकृत मे 'कोडकुंड आइरिय' लिखा गया है, वह भी शौरसेनी प्राकृत का नही है। यदि शौरसेनी के सूत्र कोई हो तो 'द' को 'ड' और आचार्य को आइरिय करने के विशिष्ट सूत्र खोजें । इस भॉति प्राकृत की सभी रचनाए मिली-जुली भाषा से ही सपन्न है- यह निष्कर्ष व्याकरण की अपेक्षा करने वालों के बोध के लिए हैं। हम तो प्राकृत को प्रकृति प्रदत्त भाषा मानने से सभी रूपों को सही मानते है। अस्तु णमोकार मंत्र की भाषा : _ न्याय सम्मत उक्त दृष्टि की अवहेलना करने वालो और मात्र शौरसेनी के गीतगाने वालो से हमारा निवेदन है कि वे अपनी दृष्टि को मूलमत्र णमोकार मे ले जाएँ । यद्यपि उन्होने 'अरहंताणं' पद को खोटा सिक्का लिखने तक मे सकोच नही किया था और हमारे द्वारा स्पष्टीकारण दिए जाने पर उन्होंने दोनो रूपो को शुद्ध मान, अपनी भूल को, हम पर यह लाछन लगाते हुए (प्रकारान्तर से) स्वीकार कर लिया कि- 'णमो अरिहताणं पाठ के विषय मे लिखे गए लेख को लेकर कई तरह के विसवाद फैलाये जा रहे है एव समाज को उत्तेजित किया जा रहा है।
हम लिख दें कि यह सब शास्त्रीय विषय है इसमें विधिपूर्वक सप्रमाण स्थिति,