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________________ अनेकान्त/9 सर्वागीण भाषा : पहिले हम लिख चुके है कि शौरसेनी कोई स्वतत्र सर्वागीण प्राकृत भाषा नही है और न ही भेद को प्राप्त अन्य प्राकृतें ही सर्वागीण हैं। और परम्परित प्राचीन जैन-आगम किसी एक भाषा से बँधे नही है। वे 'दशअष्ट महाभाषा समेत, लघुभाषा सात शतक सुचेत' के अन्तर्गत हैं- सर्वागीण भाषा से पूर्ण है और शौरसेनी आदि भाषाएँ उसमे गर्भित हैं। जैसे मानव शरीर के उपांग--- नाक, कान, आंख, हाथ आदि। ये सब अपने नाम, काम, बनावट आदि द्वारा अपनी अलग पहिचान कराते हुए भी मूल शरीर से पृथक नहीं हैं और न ही पृथक रहकर सत्ता मे रह सकते है और न ही निर्धारित कार्य कर सकते हैं उन्हे शरीर से भोजन, रक्त, मास आदि की पूर्ति आवश्यक होती है। वैसे ही केवल एक भाषा-भेद में कोई प्राकृत कार्यकारी नही होती- अन्य प्राकृतो का सहयोग आवश्यक है ! हॉ, कोई भी ‘शब्द रूप' प्राकृत भाषा के अपने स्वरूप मात्र को इगित करता है कि मै अमुक जातीय प्राकृत का शब्द हूँ। किसी गाथा या गद्य मे यदि किसी भेद के एक-दो शब्द आ जॉय तो पूरा गाथा या गद्य उसी भाषा मात्र का नहीं माना जा सकता। जैसे किसी ने कहा- 'मेरे पास अभी बात करने का 'टाइम' नहीं है तो इस वाक्य में एक शब्द 'टाइम' अग्रेजी का आ जाने से पूरा वाक्य अग्रेजी भाषा का नही कहलाया जा सकता- पूरा वाक्य अपनी भाषा हिन्दी मे ही उसे समाहित कर लेगा। अत वाक्य सामान्य हिन्दी का ही कहलाएगा। ऐसी ही स्थिति शौरसेनी की है कि उस जाति का कोई शब्द (सामान्य प्राकृत के मध्य आकर) किसी पूरे गाथा या गद्य का नामकरण शौरसेनी कराने में समर्थ न होगा। वाक्य की बात ही क्यो यहाँ तो कई शब्द स्वयं ही कई भाषा मिश्रित भी देखे जाते है। ___ यह तो माना ही जा रहा है कि "जितने प्राकृत व्याकरण है, सस्कृत शब्दों से प्राकृत बनाने के नियम दिए हैं -- 'प्राकृत विद्या' वर्ष ६ अंक ३ पृष्ठ १३ ।' इसके सिवाय आचार्य हेमचन्द्र ने भी शब्द सिद्धि मे 'प्रकृति संस्कृतम' का निर्देश दिया है। तदनुसार किसी एक शब्द को ही परख लिया जाय कि कैसे उस शब्द रूप में अनेक प्राकृते समाहित है। प्रसग मे हम प्राकृत के भविस्सदि शब्द पर विचार करते है। इस शब्द की सस्कृत की प्रकृति भविष्यति है और इसकी प्राकृत-रचना का प्रकार यह है__इसमे 'प्राकृत प्रकाश' के सूत्र २/४३ 'शषोसः' से प कोस, सूत्र ३/३ 'सर्वत्र लवराम्' से य का लोप और सूत्र ३/५० 'शेषादेशयोर्द्वित्वमनादौ' से स को द्वित्व हुआ और ये सभी सूत्र महाराष्ट्री (प्राकृत) के है अत इतने अंश मे उक्त शब्द महाराष्ट्री निष्पन्न है। इसमे 'ति' को 'दि' शौरसेनी के नियम से होता है अत वह भाग शौरसेनी निष्पन्न है। ऐसे में इसे मात्र शौरसेनी का
SR No.538048
Book TitleAnekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1995
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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