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________________ अनेकान्त/8 भ्रामक प्रचार : गत श्रुतपंचमी के अवसरपर एक इश्तिहार शौरसेनी प्राकृत के प्रचार में प्रकाशित था, जिसमें पदमपुराण का श्लोक अंकित था __नामाख्यातो पसर्गेषु निपातेषु च संस्कृता। प्राकृती शौरसेनी च भाषा यत्र त्रयी स्मृताः।। २४।११ उक्त श्लोक तीर्थकर मुनिसुव्रत के शासन काल में उत्पन्न केकयी के भाषाज्ञान के संबंध मे है कि वह उक्त तीनो (संस्कृत, प्राकृत और शौरसेनी) भाषाओं को जानती थी। पर शौरसेनी प्राकृत पोषको को शौरसेनी शब्दसे ऐसा लगा कि यह शौरसेनी प्राकृत है। बस, इन्होंने उस शौरसेनी को अपनी अभीष्ट प्राकृत के भेद रूपमें प्रचारित कर दिया। वास्तव में वह शौरसेनी यदि प्राकृत होती तो वह प्राकृती शब्द में गर्भित हो जाती, अलग से उसका कथन न होता। और यदि कदाचित् 'संस्कृता' शब्द को 'प्राकृती शौरसेनी' का विशेषण मान लें तो संस्कृत भाषा के अभाव मे दो ही भाषाएँ रह जाती हैं- जबकि कर्ता को भाषात्रयी इष्ट है। प पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने स्पष्ट तीन भाषाओं का ही उल्लेख किया है तथाहि__ 'प्रातिपदिक, तिडन्त, उपसर्ग और निपातों में संस्कार को प्राप्त संस्कृत, प्राकृत और शौरसेनी ये तीन प्रकार की भाषा जिसमें स्थित थी। पदमपुराण २४।११। पाठक विचार करे कि नामाख्यातोपसर्ग निपात सस्कारित सस्कृत भाषा, प्रकृति प्रदत्त प्राकृत भाषा और प्राकृत से भिन्न कोई प्रादेशिक शौरसेनी भाषा पिछले दिनों किन्ही विद्वान ने 'प्राकृती शौरसेनी' दोनों शब्दों का मेल बिठाने के लिए लिखा है कि- "शौरसेनी प्रकृति है। यानी ऐसा अर्थ वे अब समझ पाए। पर, हम स्पष्ट कर दे कि ये दोनो भिन्न-भिन्न भाषाएँ है। स्मरण रहे कि यदि यहाँ शौरसेनी प्रकृति होती तो उस अर्थ के लिए यहाँ 'प्राकृती नही अपितु 'प्रकृति' शब्द होता। आचार्य हेमचन्द्र ने तो स्वय ही व्याकरण सबधी अपनी शब्द सिद्धियो में 'सस्कृत' को ही प्रकृति कहा है वे तो 'शौरसेनी' संबन्धी विशिष्ट २६ सूत्रों के अन्त में इतना तक कह रहे है कि 'शेष प्राकृतवत्।' इस भॉति 'शौरसेनी' प्राकृत की प्रकृति नहीं है। यदि सभी प्राकृतो की प्रकृति शौरसेनी होती तो उन्हे शौरसेनी को 'शेष प्राकृतवत' लिखने की आवश्यकता ही न होती। अस्तु ऐसे ही शौरसेनी प्राकृत की पुष्टि में बाल्मीकि रामायण और कुमार संभव के जो दो श्लोक उद्धृत किए है उनमें न तो शौरसेनी का नाम है और न ही कोई प्रसंग है। वैसे ही लोगों को भरमाया जा रहा है।
SR No.538048
Book TitleAnekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1995
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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