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________________ अनेकान्त/12 या 'आ' हो। देखें हेम ८/१/१८० 'अवर्णो य श्रुति'। यहाँ तो लुप्त वर्ण से पूर्व ओ है। ____ चौथा शब्द 'साहूणं' है, जो संस्कृत के साधु शब्द से निष्पन्न है। क्या शौरसेनी मे कोई सूत्र है जो 'ध' को 'ह' में बदल देता हो? अन्य प्राकृतों में तो हेमचन्द्र का सूत्र ‘खघथधभाम्' ८/१/१८७ है जो 'ध' को 'ह' में बदल देता है। क्या उक्त रूपो में शौरसेनी वालो को उक्त सूत्रो के दखल स्वीकार हैं। यदि हाँ, तो भाषा मिश्रित हुई और नही तो शौरसेनी के स्वतत्र नियम कौन से? जो वैयाकरणो ने विशेष रूप मे दिए हो? उक्त विषय में विचार इसलिए भी जरूरी है कि उक्त मत्र को सभी जैन सम्प्रदायो वाले मान्य करते है और दिगम्बरों मे शौरसेनी भाषा की घोषणा से मंत्र विवाद मे पड जाएगा कि यह किस सप्रदाय का है? कुछ भी हो, भाषा के विवाद मे हम मूल मत्र छोडने को तैयार नहीं। नम्र निवेदन : हम निवेदन कर दे कि हम प्रारम्भ से ही ग्रन्थ सम्पादन की परम्परित और सर्वमान्य परिपाटी के पक्षधर रहे है और शब्द के किसी भी बदलाव को टिप्पण में देने की बात करते रहे हैं और विद्वानों की सम्मतिया भी प्रकाश में ला चुके है । परम्परा की लीक से हटकर कोई सम्पादन करना मूल को बदलना ही है, जिसे कि रचयिता की स्व-हस्तलिखित प्रति के अभाव में कदापि बदला नहीं जा सकता। उक्त विधि के अतिरिक्त अन्य विधि अपनाना मूल का सर्वथा अनिश्चय और घात है। यह तो निश्चित है कि व्याकरणमान्य शौरसेनी के मात्र २६ सूत्रो की परिधि मे किसी स्वतत्र शौरसेनी ग्रन्थ की रचना सर्वथा असंभव है और पश्चाद्वर्ती भेद को प्राप्त सामान्य प्राकृतों का प्रयोग उनमें अवश्यभावी है और इसीलिए अर्धमागधी (मिश्रित) भाषा की मुख्यता है। उदाहरण के लिए विज्जाणण्द' शब्द का उल्लेख हम कर ही चुके है। पाठक विचारे कि कैसे कोई ग्रन्थ मात्र शौरसेनी मे निर्मित होना संभव है? धाधली और दुराग्रह का इस अर्थ युग में कोई इलाज नही चाहे कोई भी किसी रचना को किसी भाषा की घोषित कर पुरस्कारो की घोषणा करता रहे। पैसे वालो को क्या रोक है। फिर पैसे के शैदाइयो की कमी भी तो नहीं। ऐसे ही में तो आचार में भी बदलाव परिलक्षित होता है। हम श्रावकों और मुनियो तक मे मूलगुणो का पूर्ण अस्तित्व नही रह गया है । लोभ रूप परिग्रह जो भी अनर्थ करा दे वह थोडा है। प्रसंगमे यह तो संशोधकों को सोचना है कि वे कौनसी नीति को अपना कर स्वयं पूर्वाचार्यों के अपमान पर कमर कसे हुए है और क्यो टिप्पण देने से कतरा रहे है। उनकी दृष्टि मे जिन आचार्यों ने 'अरिहंताणं' पाठ दिया है क्या उन्हीं आचार्यों ने अपनी रचनाओ मे शौरसेनी-बाह्य बहुत से शब्द प्रयोग
SR No.538048
Book TitleAnekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1995
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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