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________________ अनेकान्त/८ शेष मान लिया । पं० कैलाशचंद्र जी शास्त्री लिखते है कि - कसाय पाहुड और छक्खंडागम दोनो सिद्धान्त ग्रन्थों का विकास पूर्वो से हुआ था - "पूर्व पीठिका पृष्ठ ६०९ ।। प्रश्न होता है कि जब पूर्वो की भाषा अर्धमागधी थी तो कसायपाहुड व छक्खडागम शौरसेनी कैसे बन गए जबकि उनका निकास अर्धमागधी से हुआ? इसके सिवाय उक्त दोनों ग्रन्थों के कर्ताओं के सम्बंध में कही यह भी प्रमाण नहीं मिलता कि वे कभी उत्तरभारत के शूरसेन प्रदेश में आए हों जिससे उनकी भाषा शौरसेनी मानने की सम्भावना को बल मिले । दक्षिण प्रदेश में शौरसेनी के प्रचार होने का निराकरण तो हम खारवेल शिलालेख प्रसंग में कर चुके हैं । हम यह भी लिख चुके है कि भद्रबाहु काल मे ग्रन्थ नही थे, जिन्हें मुनिगण साथ ले गये हों । ऐसे में शौरसेनी मात्र के गीत गाना मात्र छल है ? हॉ, यह तो सम्भव था कि रचनाकार उभय महामुनि गुजरात मे प्रवास करते रहे और पुष्पदन्ताचार्य का अकलेश्वर (जो महाराष्ट्र के निकटस्थ है) मे चातुर्मास हुआ, ऐसे में कदाचित् महाराष्ट्री का प्रभाव पड़ा हो । शौरसेनी मात्र तो सर्वथा असभव है । कहीं ऐसा भी नहीं पढ़ा गया कि आचार्य कुन्दकुन्द भी कभी शूरसेन देश में विहार किये हों जो येनकेन प्रकारेण उनकी भाषा शौरसेनी मात्र स्वीकार की जा सके । प्राकृत की दो रचनाएं परमपूज्य आचार्य विद्यासागर जी की प्रेरणा और आशीर्वाद मे एक 'कुन्दकुन्द शब्दकोश' डा० उदयचंद जी द्वारा संपादित हुआ है । उसमें अरहंत शब्द तो अनेक स्थलो पर बताया गया है जबकि अरिहंत शब्द का कही उल्लेख भी नहीं है । क्या कोशकार विद्वान इस बात से अनभिज्ञ रहे जो प० बलभद्र जी के ज्ञान मे आ गयी ? यदि वे ऐसा समझे होते कि अरहंत खोटा सिक्का है तो अवश्य ही कोश मे उसका समावेश न करते । पूज्य आचार्य विद्यासागर भी यदि इसे खोटा सिक्का स्वीकारते तो संपादक को अवश्य वर्जन करते जैसाकि आचार्य श्री ने नही किया । शौरसेनी व्याकरणकार इन्हीं डा० उदयचन्द ने अपने व्याकरण मे पृष्ठ २५ पर "पुग्गलो, पुग्गला और इसी व्याकरण की पाठमाला मे पृष्ठ ८१ पर पचास्तिकाय की गाधा १३६ मे अरहंत शब्द का पाठ दिया है। क्या सहयोगी उक्त डाक्टर साहव इन दोनो को खोटा सिक्का नही मानते रहे जो प्रामाणिक ग्रन्थों में इन दोनो शब्दों का समावेश कर बैठे। उपहार जो हमें मिले बलिहारी है उपहार बाटनेवालो की कि वे सभी को उपकृत करने की कसम खाए बैटे है । जब उस परिसर से पवित्र “णमो अरहंताण'' तक को खोट सिक्के जैसा उपहार मिल गया, तब हमे पल्लवग्राहिपांडित्यं, विकलांग मन स्थिति वाले, व अपाहिज-विकलाग चिन्तन वाले जैसे उपहार मिलना कोई आश्चर्यकारी नही । हमारी क्या हानि है ? कुछ
SR No.538048
Book TitleAnekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1995
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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