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अनेकान्त/९ मिला ही तो । क्या करें, हमारी अवस्था भी तो ऐसी ही है । इस अवसर पर हमें निम्न पंक्तियॉ याद आ गयीं --
'उन्हें यह फिक्र है हरदम, नई तर्जे जफा क्या हो ।
हमें यह शौक है देखें सितम की इन्तहा क्या हो ।' यह समय की ही बलिहारी है कि आगम भाषा तथा मूल णमोकार मंत्र के अरहंताणं जैसे पूज्य पद को खोटा सिक्का कहने वाले चैन की वंशी बजाये और आगमो की प्रतिष्ठा में रच-पच रहे जनों पर प्रहार हों, ठीक ही है ...
रामचन्द्र कह गये सिया से एक बात और । इन्दौर के विद्वान श्री नाथूलाल जी शास्त्री में हमारी श्रद्धा रही है । वे सरल प्रवृत्ति के निर्लोभ, मुनियो जैसे हित-मित प्रिय वचनालापी है । हमे 'प्राकृत विद्या' मे उनके अभिमत को पढ़कर आश्चर्य हुआ कि “इस अक में णमी अरिहंताण का विकल्प णमो अरहताणं नही है । यह सप्रमाण स्पष्ट किया गया है ।' _ऐसा प्रतीत होता है कि पडित जी पूर्वापर विचार के बिना किसी इकतरफा प्रमाण के चक्कर मे आ गये । अन्यथा उन्होने सन् १९९० मे छपे ग्रन्थ “प्रतिष्ठा प्रदीप'' मे स्वयं ही कम से कम १४ बार "अरहंताणं" पाठ दिया है । इसके सिवाय बीजरूप मे बने विनायक और मोक्षमार्ग यंत्रो मे दो बार अरहंताणं पाठ दिया है जबकि बीज मंत्र शुद्ध ही होता है हमने भी अपने लेख में पंडित जी की भांति ही दोनों रूपो को प्रामाणिकता देकर समान श्रेणी में रखा है और दोनो ही रूप चलन में है और इनके मान्य व्याकरण से भी सिद्ध है यह भी हम इसी लेख मे स्पष्ट कर चुके हैं । स्मरण रहे कि इन दिनो विद्वानो की दुहाई पर आगम-मूल बदले जा रहे है । आशा है कि पडित जी हमारी स्पष्टवादिता को जिनवाणी की रक्षा के पक्ष मे लेंगे क्योंकि हम जिनवाणी के परीक्षण में वोटो के पक्षपाती नहीं । आगम का निर्णय आगम से होता है इसके पक्षपाती है । आशा है कि पंडित जी दोनों पदों की प्रामाणिकता पर पूर्ववत् दृढ़ रह मूलमंत्र के आगमिक दोनों रूपो को (जो प्राचीनतम ग्रन्थो में उपलब्ध है ) बचाने मे सहायी होगे और स्पष्ट करेगे | पंडित जी की "जैन संस्कार विधि'' मे भी 'अरहताणं' पद सुरक्षित है । एक नवीन उपलब्धि की आशा
डा० देवेन्द्र कुमार जैन प्राकृत के ख्याति प्राप्त विद्वान है । उन्होंने 'रयणसार'' का सम्पादन किया जा सन् १९७४ मे कन्दकुन्द भारती दिल्ली से प्रकाशित हुआ | डा० साहब ने लिखा है कि 'ग्यणमार का प्रारम्भिक कार्य पूज्य मुनि श्री (विद्यानन्द जी महाराज) के निर्देशन में आरम्भ हुआ था . हमने अपनी समझ से .जो पाठ निश्चित किये थे उनका मिलान स्वय मुनि श्री जी ने श्री महावीर जी में कन्नड़ी मुद्रित प्रति के आधार पर किया था ।'