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________________ अनेकान्त / 21 आचार्य हेमचंद्र ने भी यह वृतात कुछ परिवर्तन के साथ योगशास्त्र मे दिया है जिसका उपयुक्त विवरण यथास्थान आगे दिया गया है। हस्तिनापुर में कोरववंशी राजा कार्तवीर्य राज्य करता था जो कि बडा प्रतापी था। किसी समय उसने कामधेनु प्राप्त करने के उद्देश्य से जमदग्नि नामक तपस्वी को मार डाला। इस पर जमदग्नि के पुत्र बलशाली परशुराम ने कार्तवीर्य का वध कर दिया। इतने पर भी परशुराम का क्रोध शात नही हुआ । उन्होने युद्ध कर अनेक क्षत्रिय राजाओ को स्त्री-पुरुषो सहित मार डाला कितु तारा नाम की गर्भवती रानी गुप्त रूप से बच निकली और कौशिक ऋषि के आश्रम में पहुंची । वहां उसने भूमिगृह मे एक पुत्र को जन्म दिया। वह तलधर मे उत्पन्न हुआ था इसलिए उसका नाम सुभौम रखा गया। ऋषि के आश्रम मे सुभौम गुप्त रीति से बढने लगा। उधर परशुराम ने सभी याचकों को मनोवांछित दान दिया एवं पृथ्वी पर एकछत्र वृद्धि को प्राप्त होते रहे जैसे-जेसे सुभौम बडा हो रहा था, वैसे-वैसे परशुराम के यहा सैकडो उत्पात होने लगे। परशुराम ने इस संबध मे निमित्तज्ञानी से पूछा तो उसने बताया कि आपका शत्रु निरतर बडा हो रहा है। यह पूछने पर शत्रु को किस प्रकार पहचाना जाए, निमित्तज्ञानी ने बताया कि आपने क्षत्रियों का वध करके उनकी दाढे एकत्रित कर रखी हैं। वे दाढे भोजन करते समय जिसके पात्र मे खीर के रूप में परिवर्तित हो जाएं, वही आपका शत्रु है। यह ज्ञात कर परशुराम ने एक दानशाला में एक बर्तन मे दाढे रखी और ब्राह्मणो को भोजन के लिए आमंत्रित किया। सुभौम भी एक राजा मेघनाद से प्ररेणा पा कर उसके साथ उस दानशाला में दर्भ का एक आसन लेकर भोजन के लिए जा बैठा। उसके सामने भी दाढों से भरा पात्र रखा गया किंतु उसके प्रभाव से वे खीर में परिणत हो गई। इसकी सूचना मिलते ही परशुराम फरसा हाथ मे ले उसे मारने के लिए वहां जा पहुंचे कितु जिस थाली में वह भोजन कर रहा था वह देखते ही देखते चक्र के रूप में परिणत हो गई और उस चक्र से उसने परशुराम कावध कर डाला । सुभौम आठवें चक्रवर्ती के रूप में प्रकट हुआ । इस चक्रवर्ती ने भी क्रोध मे आकर इक्कीस बार पृथ्वी को ब्राह्मणरहित कर दिया था। अंत मे अतृप्ति के कारण सुभौम मरकर सातवे नरक में गया। जैन मुनि जिनसेन प्रथम के इस कथन पर कि परशुराम ने शत्रुओ की दाढे इकट्ठी कर रखीं थीं आज के विवेकशील पाठक को द्वेषपूर्ण कथन की गंध आ सकती है। इस संबध मे इतना निवेदन है कि जैन मुनि अपने प्राणों की कीमत पर भी असत्य कथन नही करते। जिनसेन को यह विवरण किसी प्राचीन प्राकृत रचना और उस रचना को भी संभवत मौखिक परंपरा से प्राप्त हुआ होगा । प्रस्तुत लेखक ने 1976 में हिंदी - जर्मन कोष पर विचार के लिए पूर्वी जर्मनी की दो माह की यात्रा की थी। उस समय वहां के हम्बोल्ट विश्वविद्यालय के मेजबान प्राध्यापक उसे वह नजरबंदी शिविर Concentration बउच दिखाया था जिसमे नात्सी
SR No.538048
Book TitleAnekant 1995 Book 48 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1995
Total Pages125
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size5 MB
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