SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२, वर्ष ३६, कि० ३ अनेकान्त त्याग कर देना चाहिए।" उत्पादन और एषणा दोषो से रहित, शय्या रहित हो ऐसी (४) वृत्तिपरिसंख्यान-मुमुक्षु को यह तप आशा वसतिका के अन्दर या बाहर खड़ा होना बैठना अथवा की निवृत्ति के लिए इन्द्रिय सयम के लिए, तथा मोक्ष प्राति शयन करना विविक्तःशयनासन नाम का तप है। ऐसे के लिए सदैव करना चाहिए। श्रमण भिक्षा से सम्बद्ध, एकान्त स्थान मे निवास करने वाले साधु असाधु लोगों के दाता, चलना, पात्र गृह आदि विषयों से सम्बन्धित अनेक ससर्ग से उत्पन्न होने वाले मोह, राग और द्वेष से सन्तप्त प्रकार के सकल्पों के द्वारा शरीर के लिए वृत्ति करता है नही होते ।" और यही वृत्तिपरिसख्यान तप है।" उदाहरणार्थ-पूर्ब बाह्य तप की विशेषता--बाह्य तप के करने से गमन किये हुए मार्ग से लौटते हुए भिक्षा मिलने पर ही यति में अनेक गुणों का प्रादुर्भाव हो जाता है, जसे-बाह्य ग्रहण करूंगा, सीधे मार्ग से जाने पर यदि मिली तो ग्रहण तप से आत्मा, सपना कुल, गण, शिष्यपरम्परा सुशोभित करूँगा अन्यथा नही आदि मार्ग विषयक ।" सोने, चाँदी, होती है। आलस्य नष्ट हो जाता है। विशेषत: संसार का कांसी अगवा मिट्टी के पात्र द्वारा दी गयी भिक्षा ही ग्रहण मूलकर्म नष्ट होता है।" बाह्य तप से बहुत से प्राणी समार करूंगा अन्यथा नही आदि पात्रविषयक । स्त्री, वालिका, से भयभीत हो जाते है, मिथ्यादष्टियों मे सौम्यता आ जाती युवती, वृद्धा अथवा अलकार युक्त वा अल कार रहित स्त्री है तथा इस तप के करने से मोक्ष मार्ग प्रकाशित होता है। से ही ग्रहण करूंगा अन्यथा नही आदि दाता विषयक । क्योकि तप के अभाव में कमों की निर्जग सम्भव नहीं है कूल्माष आदि से युक्त भात, चारो ओर व्यञ्जन के मध्य इसके साथ ही जिन भगवान की आज्ञा का पालन हो जाता में पूष्पावली के समान रखते चावल आदि भोजन मिलने है। इस तप से शरीर मे लघुता और उससे सम्बद्ध रनेह पर ही ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं। इस प्रकार के अनेक का नाश, रागादि का उपशम होता है । २ अनशनादि तप भोजन सम्बन्धी नियम लेना वृत्तिपरिसख्यान है। से अनर्थकारी सुखशीलता का नाश, शरीर मे कृशता, ५) कायक्लेश-कायोत्सर्ग करना, शयन, बैठना ससार से विरक्ति होती है, इन्द्रियां दान्त होती है, वीर्याऔर अनेक विधिनियम ग्रहण करना, उनके द्वारा आगगा- चार में प्रवृत्ति तथा यति के जीवन के प्रति इच्छा भी नूसार शरीर को कष्ट देना ही कायक्लेश नाम का तप समाप्त हो जाती है। बाह्य तप से शरीर, रस और सुख है।" उदाहणार्थ-तेज धूप में सूर्य की ओर मुख करक में आमक्ति नही रहती तथा कषायों का मर्दन होता है । गमन करना, जिस ग्राम में मुनि ठहरे हो उस ग्राम से अन्य मरणकाल मे जिस समस्त आहार का साधु को त्याग करना ग्राम मे भिक्षा के लिए गमन करना और जाकर लौटना, पड़ता है, उसका अभ्यास उसे बाह्य तप से ही हो जाता है. चिकने स्तम्भ आदि के सहारे खड़ा रहना, एक स्थान पर वह दुःख-सुख मे समभाव को प्राप्त होता है, निद्रा पर निश्चल स्थित रहना, एक पैर से खड़े रहना, वीरासन विजय प्राप्तकर लेता है और ब्रह्मचर्यको धारण करता है।" प्रावि आसन लगाना, मृतक के समान निश्चेष्ट सोना, आभ्यन्तर तप के भेदखले आकाश मे शयन करना, न थूकना, न खुजाना, केश- १ प्रायश्चित-अपराध को प्राप्त हुआ जीव जिस लोच, रात्रि-जागरण तथा आतापन आदि योग करना तप के द्वारा अपने पहले किये हुए पापो से विशुद्ध हो जाता कायक्लेश नामक तप है।५ है, वह प्रायश्चित्त" नामक आभ्यन्तर तप है। यह तप (६) विविक्तशय्या-जिस वसति में मनोज्ञ अथवा आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप छेद, अमनोज्ञ शब्द, रस, रूप, गन्ध और स्पर्श के द्वारा अशुभ मूल परिहार और श्रद्धान के भेद से दस प्रकार का है।५ परिणाम नही होते अथवा स्वाध्याय और ध्यान में विघ्न भगवती-आराधना विजयोदया टीका मे आलोचना आदि नहीं होता। जो खुले हुए अथवा बन्द द्वार वाली सम प्रकार का प्रायश्चित तप कहा है।" प्रकार इस अथवा ऊँची-नीची भूमि वाली, बाहर के भाग में स्थित प्रकार हैं-आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, हो। स्त्री, नपुंसक पशुओं से रहित, ठडी या गर्म", उदगम, तप, छेद, परिहार और उपस्थापन ।"
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy