SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती अराधना में तप का स्वरूप आचार्य आदि के समक्ष अपने दोषों का चारित्र आचारपूर्वक निवेदन करना आलोचना नामक प्रायश्चित है ।" यह दो प्रकार का है - सामान्य और विशेष । जिस मुनि को मूल नामक प्रायश्चित दिया जाता है वह सामान्य आलोचना तथा इसके अभाव में वह विशेष आलोचना करता है ।" अनेक अपराध करने वाला तथा सम्यक्त्व व्रत आदि का घात करने वाला मुनि सामान्य आलोचना करता है। मैं आज से मुनि दीक्षा लेना चाहता हूं और मैं रत्नत्रय से हीन हूं इस प्रकार आलोचना करना ही सामान्य आलोचना है। दीक्षा से लेकर सब काल और क्षेत्र में जिस भाव और क्रम से जो दोष दिया गया है, उसकी उसी प्रकार आलोचना करना ही विशेष आलोचना है ।" विशुद्ध परिणाम वाले क्षपक के आलोचना प्रतिक्रमण आदि किया प्रशस्त क्षेत्र में पूर्वाह्न अथवा अपराह्न काल में, शुभ दिन शुभ नक्षत्र और शुभ समय में होती है । " सुचारित्र सम्पन्न क्षपक दक्षिण पार्श्व मे पीछी के साथ हाथों की अंजलि को मस्तक से लगाकर मन, वचन, काय की शुद्धि पूर्वक गुरु की वन्दना करके सभी दोषों से रहित होकर आलोचना करता है।" प्रतिक्रमण -- ससार से भयभीत और भोगों से विरक्त साधु के द्वारा किये गये अपराध को मेरे दुष्कृत मिथ्या हो, मेरे पाप शान्त हो। इत्यादि उपायों के द्वारा दूर करने को प्रतिक्रमण" नामक प्रायश्चित कहते हैं। अर्थात् दोषो की निवृत्ति को प्रतिक्रमण कहते है । यह नाम प्रतिक्रमण स्थापना प्रतिक्रमण, द्रव्यप्रतिक्रमण क्षेत्रप्रति क्रमण, कालप्रतिक्रमण और भावप्रतिक्रमण के भेद से छह प्रकार का है।" भट्टिनी, दारिका आदि अयोग्य नामो का उच्चारण न करना नामप्रतिक्रमण है। लिखित या खोदी हुई आप्तभासों की मूर्ति, जस और स्थावरों की आकृतियों को स्थापना शब्द से कहा गया है, उनमें आप्तभासो की मूर्तियों के समक्ष पूजन न करना स्थापना प्रतिक्रमण है तथा त्रस, स्थावर आदि रचनाओं को नष्ट न करना स्थापना प्रतिक्रमण है। गृह, खेत आदि दस परिग्रहों का उद्गम, उत्पादन और एषणा दोषो से दूषित वसतिकाओं का, उप करणों का और भिक्षाओं का अयोग्य आहारादि का और तृष्णा, मद तथा सकने के कारणरूप द्रव्यों का त्याग २३ करना द्रव्यप्रतिक्रमण है। जल कीचड़ और उस स्थावर जीवों से युक्त क्षेत्रों में गमन आगमन का त्याग क्षेत्र प्रतिक्रमण है अथवा जिस क्षेत्र में रहने से रत्नत्रय की हानि हो, उसका त्याग क्षेत्र प्रतिक्रमण है। रात तीनों सन्ध्या, स्वाध्याय और छह आवश्यकों के काल में गमन - आगमन आदि का व्यापार न करना कालप्रतिक्रमण है। मिध्यात्व, असंयम, कषाय, राग-द्वेष, आहारादि संज्ञा, निदान, आतं रोग आदि अशुभ परिणामो का तथा पुण्यासवभूत शुभ परिणामों का त्याग भावप्रतिक्रमण है। तदुभय - दुःस्वप्न, संक्लेश आदि से होने वाले दोषों के निराकरण के लिए जो आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों प्रायश्चित किये जाते हैं, उसे तदुभय" प्रायश्चित कहते हैं । विबेक " - ससक्त अन्नादि में दोषों को दूर करने में असमर्थ साधु जो संसक्त अन्नादि के उपकरणादि को अलग कर देता है, उसे विवेक प्रायश्चित्त कहते हैं । इसी प्रकार यदि साधु भूल से स्वयं अथवा दूसरों के द्वारा कभी अप्रासुक वस्तु को ग्रहण कर लेता है, तब स्मरण होते ही उसको छोड़ देना विवेक प्रायश्चित है, अथवा त्यागी प्रामुक वस्तु भी यदि साधु ग्रहण कर लेता है तो स्मरण होते ही उसका त्याग कर देना विवेक है । यह गणविवेक और स्थानविवेक के भेद से दो प्रकार का है।" हुई मूल पार्श्वस्थ, संसक्त, स्वच्छन्द, अवसन्न और कुशीत मुनियों को अपरिमित अपराध होने से सम्पूर्ण दीक्षा छेदकर पुन: दीक्षा देना मूल प्रायश्चित है । जो सुखशील होने से बिना कारण अयोग्य का सेवन करता है वह पार्श्वस्य कहलाता है अथवा जो निरतिचार संयम का मार्ग जानते हुए भी उसमें प्रवृत्ति नहीं करता, किन्तु संयम के पार्श्ववर्ती मार्ग में चलता है, वह न तो एकान्त से असंयमी और न निरतिचार से संयमी है, अतः उसे पार्श्वस्थ " कहते है एक अन्य स्थान पर पार्श्वस्थ के विषय में कहा गया है कुछ साधु इन्द्रियरूपी चोरों और कषायरूपी हिंसक जीवों के द्वारा पकड़े जाकर साधु संघ के मार्ग को छोड़कर साधुओं के पार्श्ववर्ती हो जाते हैं, यही कारण है कि यह पासत्य या पार्श्वस्थ कहे जाते हैं।" संसक्त साधु-नट के समान अनेक रूप धारण करने वाला होता है वे पार्श्वस्थ के संसर्ग से पार्श्वस्य कुशील के संसर्ग ।
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy