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________________ भगवती अाराधना में तप का स्वरूप ] कु. निशा, विननीर कर्मक्षयार्थ तप्यत इति तपः अर्थात् कर्मक्षय के लिए आभ्यन्तर परिणामों की विशुद्धि का चिह्न अनशनादि जो तपा जाता है वह तप है। इसी प्रकार सम्यग्ज्ञानरूपी बाह्य तप है, जैसे किसी मनुष्य के मन में क्रोध उत्पन्न हान नेत्र को धारण करने वाले साधु के द्वारा जो तपा जाता है पर उस क्रोध का चिह्न मकुटी चढाना होता है। इस प्रकार उसे तप कहते है । यह तप का निरुक्तयर्थ है । कर्त्तव्य और बाह्य और आभ्यन्तर तपो में लिङ्ग-लिङ्गी भाव है।' अकर्तव्य को जानकर अकर्तव्य का त्याग करना चारित्र बाह्य तप के भेदहै वही ज्ञान है और वही सम्यग्दर्शन है, उस अकर्तव्य के (१) अनशन-न अशन अर्थात् अशन के न करने त्यागरूप चारित्र मे जो उद्योग और उपयोग होता है, उसको ___को या अप भोजन को अनशन" कहते हैं । यह तप तभी जिन भगवान ने तप कहा है अर्थात् चारित्र मे उद्योग और माना जाता है जब कर्मक्षय के लिए किया जाता है । अनउपयोग ही तप है। तप शब्द का अर्थ समीचीनतया निरोध शन तप दो प्रकार का होता है.-१. अद्धाशन २. सर्वानकरना होता है। रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए इष्ट-अनिष्ट शन । विषयों की आकांक्षा के निरोध का नाम ही तप है। इसके अद्धाशन (चतुर्थ उपवास से छह मास का उपवास) दो भेद हैं-१. बाह्य तप, २. आभ्यन्तर तप । उनमें भी गृहणकाल और प्रतिसेवनाकाल में किया जाता है तथा प्रत्येक के छह-छह भेद हैं। अनशन, अवमोदर्य, रसों का सर्वानशन सन्यास ग्रहण करने से लेकर मरणपर्यन्त तक त्याग, वृत्तिपरिसंख्यान, कायक्लेश और विविक्तशय्या ये किया जाता है। छह प्रकार के बाह्य तप है और प्रायश्चित, विनय, वेया- (२) प्रवमौदर्य-बत्तीस ग्रास प्रमाण पुरुष के और वृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये आभ्यन्तर तप है। अट्ठाइस ग्रास प्रमाण स्त्री के आहार मे से एक-दो ग्रास बाह्य और माभ्यन्यर तप-बाह्य जन अन्य मत आदि की हानि के क्रम से जब तक एक ग्रास मात्र भी शेप वाले और गृहस्थ आदि भी इन तपों को जानते है, इसी होता है वह अवमोदर्य तप है।" यह तप उत्तम क्षमा आदि कारण अनशनादि तपों को बाह्य तप कहते है तथा जो रूप धर्म की, छह आवश्यको की, आतापन आदि योग की सन्मार्ग को जानते हैं, उनके द्वारा जिसका आचरण किया प्राप्ति के लिए, वायु आदि विषमता को दूर करने के लिए जाता है, ऐसे तप आभ्यन्तर तप कहे जाते है। प्रायश्चित्त निद्रा को जीतने आदि के लिए किया जाता है। आदि तपो मे बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा न होकर अन्तरग परि- (३) रसपरित्याग- दूध, दही, घी, तेल, गुड़, पत्रणामों की मुख्यता रहती है तथा इनका स्वयम् ही सवेदन शाक, लवण आदि सबका अथवा एक-एक का त्याग रसहोता है, ये देखने में नहीं आते तथा इनको अनाहत लोग परित्याग' नामक तप है। इसकी चार महाविकृतियां होती धारण नहीं कर सकते, इसी कारण प्रायश्चित्तादि को अत- हैं-नवनीत, मद्य, मांस और मधु । ये क्रमशः अभिलाषा रंग तप' कहा जाता है। कमों की निर्जरा मे समर्थ आभ्य- प्रसंग, दर्प और असंयम को उत्पन्न करने वाली है। इन्हें न्तर तपो की वृद्धि के लिए अनशनादि बाह्य तप किये जाते महाविकृतियाँ इसलिए कहा जाता है, क्योंकि ये मन को हैं । अतः आभ्यन्तर तप ही प्रधान है। यह आभ्यन्तर तप अत्यधिक विकासयुक्त कर देती है। अत: जिन भगवान शुद्ध और शुभ परिणामो से युक्त होता है, इसके बिना की आज्ञा को धारण करने वाले. पाप से भयभीत तथा बाह्य तप निर्जरा में समर्थ नहीं होता है। तप में एकाग्रता के इच्छुक को इन महाविकृतियों का सर्वथा
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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