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६,बर्ष ३६,कि०३
अनेकान्त
रुक्मिणी में से जिस किसी के पुत्र होगा, वह अपनी कन्या दुर्व्यवहार करेंगे तो मुझसे देखा नहीं जाएगा।" इस बालका विवाह उसी से करेगा । कृष्ण यह प्रस्ताव सहर्ष संवर कान का सृवर्ण पत्र लेकर बालक का युवराज पद स्वीकार कर लेते हैं । यह समाचार जानकर सत्यभामा हेतु पट्ट बन्ध कर देता है। मेघकूट नगर पहुचकर वह रुक्मिणी के पास अपनी दासी भेजकर शर्त' रखती है कि निपण विद्याधर यह घोषणा करता है कि गूढ़ गर्भ को "उस विवाह के समय जिनके पुत्र न होगा उसी की कटी धारण करने वाली महादेवी कनकमाला ने इस पुत्र को कटी हुई केशलता को रो के नीचे रखकर ही वर-वधु जन्म दिया है। तब नगर में जन्मोत्सव मनाए जाते हैं। स्नान करेगे।" रुक्मिणी और सत्यभामा लगभग एक और स्वर्ण की कान्ति वाले इस बालक का नाम प्रद्युम्न समय में गर्भवती होती है तथा दोनों एक ही दिन पुत्रो रखा जाता है।" मेघकूट नगर में प्रद्युम्न दिन पर दिन का प्रसव करती है । यह शुभ समाचार कृष्ण को सुनाने बद्धि. वल व सौन्दर्य मे बढने तगता है। हेतु दोनो रानिया अपने-अपने सन्देशवाहक भेजती है। उधर द्वारकापुरी मे जब रुक्मिणी मायनिद्रा से उस समय कृष्ण शयन कर रहे थे। रुक्मिणी के दूत जागती है तो समीप पुत्र को न पाकर विलाप करती है। श्रीकृष्ण के चरणो के समीप तथा सत्यमामा के अनुसार कृष्ण भी चिंतित हो जाते है तभी वहा नारद आते हैं और उनके सिर के समीप खड़े हो जाते है।"
बालक के विषय में जानकरी प्राप्त करने का आश्वासन जब कृष्ण निद्रा से उठते हैं तो उनकी दृष्टि पहने देकर पूर्व विदेह क्षेत्र की पुण्डरीकणी नगरी पहुंचते है। रुक्मिणी के सेवको पर पड़ती है और उनके शुभ समाचार तीर्थकर सोमन्धर के समवशरण मे पहुच कर नारद उनसे प्राप्त कर वे आभूषण आदि से उन्हें पुरस्कृत करते हे रुक्मिणी पत्र के विषय मे जिज्ञासा करत है तो सीनन्धर तदुपरात सत्यभामा के पुत्र की सूचना सुन, उसके वाहकों स्वामी बताते है कि उस बालक का नाम प्रद्युम्न है। को भी पुरस्कार देकर विदा करते है।
सोलहवा वर्ष आन पर वह सालह लाभ प्राप्त करक तथा धूमकेतु नामक असुर उस समय आकाश मार्ग से प्रज्ञप्ति नामक महाविद्या से समलकृत होकर पुनः अपने बिहार कर रहा था। रुक्मिणी के महल के ऊपर उसका माता पिता से मिलेगा ।" तत्सवात वे प्रद्युम्न और विमान स्वतः रुक जाता है। विर्भगावधि जान से रुक्मिणी शाम्ब (कृष्ण-जाम्बता पुत्र) क पूर्व भवो की कया सविके पुत्रजन्म की बात जानकर तथा पूर्व जन्म के बैर का स्तार सुनाते है।' समस्त वृतान्त जानकर नारद स्मरण आते ही वह सबको मायामयी निद्रा में मग्न करके पहल कालसवर के प्रासाद के महन मे जाते है । वहा शिशु का अपहरण कर लेता है। पहले तो उसके हृदय मे प्रद्युम्न को आशीर्वाद देकर द्वारिका लौटते है और सभी शिशु को मार डालने का विचार आता है फिर यह सोच- समाचार रुक्मिणी को बताते है।" कर कि “यह तो मास पिंड है इसे मारने से क्या लाभ" विजयार्ध पर्वत पर प्रद्युम्न का विकास होने लगा। वह शिशु को खदिर अटवी मे तक्षशिला के नीचे छोड़कर । बाल्यावस्था म ही वह विद्याधरो की विद्या मे पारगत हो चला जाता है।"
गया। अपन रूप लावण्य, सोभाग्य और पौरुष द्वारा वह सयोगवश मेघकूट नगर का राजा (विद्याधर) काल- शत्रु, मित्र, पुरुष-स्त्री, सभी का मन हर लेता । युवा होने सवर अपनी रानी कनकमाला' के साथ विमान में विहार पर कामदेव प्रद्युम्न समस्त अस्त्र-शस्त्रों की विद्या मे पूर्ण करते हुए उस ओर आता है । तक्षशिला के ऊपर उसका कुशल हो जाता है, तथा काम, मनोभव, कामदेव, मन्मथ, विमान स्वतः रुक जाता है तब वह नीचे उतरकर बालक मदन, अनंग इत्यादि नामो से युक्त होता है। कालसंवर को शिला के नीचे से निकालकर कनकमाला को यह कहते के पाच सौ पुत्र उसके विरोधी सिंह रथ" को परास्त नहीं हुए सौप देता है कि "तुम्हारे कोई पुत्र नहीं है अतः यह कर पाते, उस सिंहरथ को प्रद्युम्न पराजित कर युवराज तुम्हारा पुत्र हुआ।" रानी कनकमाला कहती है "आपके पद प्राप्त करता है। अतः ईष्यावश वे पांच सौ कुमार कुल में उत्पन्न पांच सौ पुत्र हैं भोर यदि इसके साथ प्रद्युम्न के विनाश का उपाय करने, उसे सिवायतन योपुर,