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कामदेव प्रथम्न
जैन परम्परा में मान्य चौबीस कामदेवों में से इक्कीसवें कामदेव प्रद्युम्न कुमार थे। ये तीर्थंकर नेमिनाथ के समय में हुए तथा ये नेमिप्रभु के चचेरे भाई नारायण श्रीकृष्ण के गर्भ से उत्पन्न ज्येष्ठ पुत्र थे। प्रयुम्न अपने अतिशय सौन्दर्य, भद्भुत बल पराक्रम और कौतुक पूर्ण लीलाओं के कारण अत्यधिक प्रसिद्ध हुए। उनके आकर्षक जीवन-चरित को विभिन्न पुराणो एव चरित-काव्यो मे विस्तार पूर्वक वर्णित किया गया है। इस निबन्ध मे प्रद्युम्न कुमार की कथा को आचार्य जिनसेन कृत हरिवश पुराण के आधार पर प्रस्तुत किया है क्योंकि वह प्राचीन ग्रंथो मे से एक होने के साथ-साथ अधिकांश "प्रद्युम्नचरित" काव्यों का उपजीव्य रहा है। अन्य ग्रन्थो की कथा का अन्तर एवं वैषम्य "फुटनोट" मे स्पष्ट किया गया है ।
आकाशचारी नारद मुनि के "द्वारिका" आगमन के साथ ही "प्रद्युम्नकथा का बीजारोपण हो जाता है।' नारद, यादवराज श्रीकृष्ण की सभा मे सम्मान प्राप्त करने के अनन्तर सत्यभामा (कृष्ण पत्नी) के अन्त पुर में पहुंचते है। सत्यभामा अपने शृगार मे व्यस्त रहते हुए नारद जी की अवमानना करती है । उसी क्षण नारद भी सत्यभामा का मान भंग करने की ठान, उसके रूप को अतिक्रांत करने वाली सुन्दर कन्या की खोज करते-करते कुण्डिनपुर पहुंचते हैं वहा राजा भीष्म की अपरूप सुन्दरी कन्या रुक्मिणी को देख स्तम्भित रह जाते है ।
रुक्मिणी जैसे ही नारद को अभिवादन करके उठती है, वे उसे आशीर्वाद देते है "द्वारकाधीश कृष्ण तुम्हारे स्वामी हों इस प्रकार रुक्मिणी के हृदय में कृष्ण के प्रति अनुरक्ति उत्पन्न करके नारद उसका चित्र एक पट पर अंकित करके' पुनः कृष्ण की सभा मे उपस्थित होते है। चित्रपट में रुक्मिणी का सौन्दर्य देखकर कृष्ण के मन में
डा० इन्दुराय, लखनऊ
उससे परिणय की तीव्र लालसा उत्पन्न हो जाती है।
उधर कुण्डिनपुर के राजा भीष्म की बहन' रुक्मिणी को बताती है कि एक बार अतिमुक्तक मुनि वहाँ आए थे और उन्होने कहा था कि "रुक्मिणी नारायण श्री कृष्ण के वक्षस्थल का आलिंगन करेगी" परन्तु तुम्हारा भाई म तो तुम्हारा विवाह शिशुपाल से निश्चित कर चुका है, तब रुक्मिणी के आग्रह पर उसकी बुभा अपना दूत श्रीकृष्ण के पास इस सन्देश के साथ भेजती है कि "माघ शुक्ला अष्टमी को रुक्मिणी नाग पूजा हेतु नगर के बाहर उद्यान मे जाएगी आप उसका हरण कर लें। योजना के अनुसार ही कृष्ण और बलराम रुक्मिणी का हरण कर लेते है और शब द्वारा उसकी उसकी उदघोषणा भी कर देते है, जिसे सुनते ही रुक्म एवं शिशुपाल विशाल सेना के साथ युद्ध करने प्राते है । रुक्मिणी के आग्रह पर कृष्ण रुक्म को क्षमा कर देते है परन्तु शिशुपाल का शिरोच्छेदन करने के पश्चात् " रेवतक" पर्वत पर रुक्मिणी से विधि विवाह करते है ।'
द्वारिका लौट कर श्रीकृष्ण रुक्मिणी का महल सत्यभामा के भवन के निकट ही बनवाते है । कृष्ण के व्यवहार से सौत के सौभाग्य को लक्ष्य कर सत्यभामा रुक्मिणी से मिलने की उत्सुकता व्यक्त करती है । तब श्रीकृष्ण सत्यभामा को उस उद्यान मे भेजते है जहां रुक्मिणी मणिमय आभूषणो से सज्जित आलता को पकड़े खड़ी थी । सत्यभामा उसे देवांगना समझ कर उसके चरणों में पुष्प समर्पित कर अपने सौभाग्य की याचना करती है। उसी समय श्रीकृष्ण उपस्थित होकर दोनों का परस्पर परिचय करवाते है और वह दोनों मित्रतापूर्वक रहने लगती है।
एक दिवस कुरुराज दुर्योधन अपने दूत द्वारा नारायण कृष्ण के पास प्रस्ताव भेजता है कि सत्यभामा और