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________________ ६. वर्ष २, कि० १ निश्चय ही उपादेय है। अन्य चंपू भी महत्वपूर्ण चम्पू काव्य है । तृतीय परिच्छेद में पुरुदेवयंपू का काव्यात्मक अनुशी लन किया गया है। इस दृष्टि से इस काव्य में वर्णित रस, गुण, रीति, छन्द एव अलंकारों का अध्ययन प्रस्तुत है । इस काव्य का अंगीरम शान्त है। आरम्भ के तीन स्तवकों में जगह-जगह संसार की असारता और उस असारता से विभिन्न पात्रो को दीक्षा लेकर वन मे तपस्या करते हुए दिखाया गया है। आगे भी नायक ऋषभदेव को हम संसार की असारता का चिन्तन करके विरक्त होते हुए देखते हैं। अन्यरसों ने श्रीमती मरुदेवी आदि के चित्रण मे शृंगार का, ललितांग के अवसान पर तथा युद्ध आदि में करुण का सैन्य प्रमाण तथा युद्ध मे रौद्र और वीभत्स का सुन्दर परिपाक हुआ है। पुरुदेव का प्रधान रस शान्त होने से उसमे माधुर्य गुण की मधुरता यत्र-तत्र विद्यमान है। साथ ही बच्चदन्त और भरत की दिग्विजय यात्रा-प्रसंगों, भरत बाहुबलियुद्धसन्दर्भों में ओजमयी भाषा भी कम आकर्षित नहीं करती और प्रसाद की प्रासादिकता भी सहृदयों को बलात् आकृष्ट करती है । अर्हद्दास ने रस एवं भाव के अनुसार ही उक्त तीनो गुणो, छन्दो और अलंकारों का प्रयोग किया है। चतुर्थ परिच्छेद में कथातत्व का निरूपण किया गया है । जब कोई घटना या विचार किसी कथानक में बारवार प्रयुक्त होता है तो उसे कथानकरूढि कहा जाता है । पुरुदेवचंपू की कथावस्तु पौराणिक है। अतएव अनेक पौरा 'णिक कथा-रूढ़ियां वहांजलिखित है। अनेक कार्यों के एक साथ उपस्थित होने पर धर्म कार्य को प्रमुखता दिया जाना नष्ट होती आयु, बन्द होते कमल मे भौरे की देखना, सफेद बाल, विलीन हुए बादल को देखकर दीक्षा लेना आदि कथारूढ़िया यहां वर्णित है । कुछ 'प्रकरी' कथायें भी इस काव्य में आई हैं जिनका अलग-अलग विश्लेषण यहां किया - गया है। धार्मिक काव्य होते हुए भी कही कही अर्हद्दास श्रृंगारिकता में कण्ठ निमग्न हो गये है । लोकमंगल, उप- देशात्मकता, अद्भुत तत्वों का समन्वय, कुतूहलवृति और उदात्तीकरण की भावना इस काव्य में दिखाई देती है । पंचम परिच्छेद में पुरुदेवचंपू के पात्रों का तुलनात्मक काले अनुशीलन किया गया गया है। किसी भी महान पुरुष के वर्तमान का सही मूल्यांकन करने के लिए उसकी पृष्ठभूमि को देखना आवश्यक है। इससे हमें यह ज्ञात होता है कि आज के महापुरुष की महत्ता कोई आकस्मिक घटना नही, अपितु जन्म जन्मान्तरों में की गई उसकी साधना का ही परिणाम है। अतः पूर्वभवों का वर्णन उपयोगी है। पुरुदेववधू के सभी प्रमुख पात्रो का अलग-अलग पूर्वभव वर्णन इस परिच्छेद मे किया गया है। ऋषभदेव का मानवीय संस्कृति के विकास मे महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उनका व्यक्तित्व इतना विराट है कि वह किसी सम्प्रदाय, जाति, देश अथवा काल की सीमा मे आवद्ध नही किया जा सकता है। प्राकृत भाषा मे 'सूत्रकृतांग', स्थानांग', 'समवायोग', 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' 'जम्बूदीपपत्ति', तिलोयपण्णत्ति, चउपन्नमहापुरिसचरिय आदि ग्रन्थों में तथा महापुराण आदि अपभ्रंश ग्रन्थों में उनका चरित्र वर्णित है । संस्कृत का महापुराण तो ऋषभचरित का आकर ग्रन्थ है | । वैदिक साहित्य में ऋग्वेद के अनेक मन्त्रो में उनकी स्तुति की गई है। लगभग सभी पुराणो मे जताया गया है। कि नाभि के पुत्र ऋषभ और ऋषभ के पुत्र भरत के नाम पर ही इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। श्रीमद्भागवत के पंचम स्कन्ध मे ऋषभदेव का चरित्र विस्तार से वर्णित है। कन्नड साहित्य के आदिपुराण, जिनराजस्तव त्रिषष्ठिलक्षण महापुराण, भरतेशवैभव आदि ग्रन्थो में ऋषभदेव वर्णित है। ऋषभदेव विषयिक जैन मान्यताओ मे उनके जन्म, वंश, पारिवारिक जीवन, निद्याओं का उपदेश वर्गव्यवस्था प्रवज्या ग्रहण, तपश्चरण, समवसरण, निर्वाण आदि विषयों पर विचार किया गया है । चक्रवर्ती भरत भारतीय इतिहास के प्रतापशाली राजा हैं, जिनके नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। जैन साहित्य मे भरत और बाहुबलि के युद्ध का विस्तृत चित्रण हुआ है। यहां उनके इस युग का तुलनात्मक दृष्टिकोण से विवेचन किया गया है । छठे परिच्छेद में पुरुदेवचपू का सांस्कृतिक विश्लेषण किया गया है। यहां भौगोलिक और सामाजिक दृष्टियों से उपलब्ध सामग्री का विपद विवेचन विवेचित है।
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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