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________________ पुतदेव चम्पू का आलोचनात्मक परिशीलन सप्तम परिच्छेद में राष्ट्रनीति और लोकाभ्युदय का कलाओं का बहुधा उल्लेख हुआ है, पर पुरुदेवचम्पू में विवेचन किया गया है। राजा प्रजा के अनुरंजन के लिए उनकी संख्या निश्चित नही बताई गई है। चित्रकला, नाट्य, तत्पर थे। वे महायशस्वी और स्वाभिमान से परिपूर्ण थे। संगीत-शास्त्र आदि का उल्लेख कर, कहा गया है कि परुदेवचम् मे सापेक्ष राजाओ की स्थिति दष्टिगोचर होती ऋषभदेव ने अन्य पुत्रों को लोकोपयोगी कलाओं का उपहै। ये अपने जीवनकाल में ही पत्र को राज्य-भार सौंप देश दिया। देते हैं । भरत-बाहुबली प्रजानुरजन के लिए सैन्य युद्ध न उत्सवों में वर्षवृद्धिमहोत्सव, अभिषेकोत्सव, राज्याभिकरके परस्पर में ही युद्ध करते है। राज्य का उत्तराधि- कोत्सव आदि उत्सवों तथा जल-क्रीड़ा, बनक्रीड़ा धूलि. कारी ज्येष्ठ पुत्र होता था। अवयस्क बालक को भी राज्य क्रीडा आदि का वर्णन किया है। भार सोप दिया जाता था। राज्य मे मत्रियो का सम्मान नवम परिच्छेद मे उपमहार करते हुए कहा गया है था सेनापति, पुरोहित और दूतो की व्यवस्था थी, प्रजा कि जैनचंपूकाव्यों के विकास मे महाकवि अर्हदास का अव. संतुष्ट थी और सर्वत्र सुख शान्ति थी। दान अनुपेक्षणीय है। अर्हद्दास की कृतियों ने संस्कृत साहित्य ___ आठवें परिच्छेद में कला और मनोरंजन का विवेचन के विपुल भण्डार को नवीन रश्मियों का उपहार दिया है। किया गया है । जैन साहित्य में यद्यपि चौसठ और वहत्तर पाहा (पृ० ४ का शेषांश) रंजित योग प्रवृत्ति से होने वाले प्राण हनन व प्राण रक्षण रूप में स्वीकार करें। यत:-सभी सविकल्प अवस्थानों में जेसे भावों और कार्यों से पूरा मेल खाते हैं । अन्तिम दो रागादि के अंश विद्यमान है-पाप-पुण्य का पूर्ण परिहार लक्षणो मे तो लेश्या को औदयिक भाव बतलाया जाने से तो निर्विकल्प-प्रमादातीत वीतराग अवस्था में ही है, जो यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि अहिंसा जैसा औप- जैन धर्म को इष्ट है। शमिक, या क्षायोयशमिक भाव कषाय और योग हम एक निवेदन और कर दें-अपरिग्रह को मूल जैसे औदयिक भावों का कार्य नही हो सकता। जबकि मानकर हमने जो शास्त्रीय तथ्य उजागर किए हैं वे भले कषाय और योग-जन्य प्राण रक्षण जैसे उपक्रम को अहिंसा ही दया, करुणा और दान आदि के आदान-प्रदान के माना जा रहा है और अहिंसा के मूल अप्रमाद (अपरिग्रह) छलावे से यश एवं परिग्रह-अर्जन मे लगे लोगों को पसन्द से नाता तोडा जा रहा है-परिग्रह की बढवारी की जा न आयें-वे इसका विरोध करें, पर, हमे सतोष है कि रही है। प्रबुद्धों ने उन तथ्यो को स्वीकार कर जैन धर्म और जिन___ हा, कदाचित् यदि आचार्य रागादिक के अप्रादुर्भाव वाणी की रक्षा को समर्थन दिया है। हमारे पास समर्थन को अहिंसा का लक्षण घोषित न करते और हिंसा के मे बहुत से पत्र आए हैं, हम सभी का स्वागत करते हैं। लक्षण मे प्रमाद के योग को कारण न मानते मात्र प्राण- यदि कोई समझें और सन्मार्ग पर आयें तो हमें उनका हनन को हिंमा का लक्षण घोषित करते, तो हम ऐसा मान स्वागत करने में भी हर्ष होगा-जिन्होंने परिग्रह की सकते थे कि जैसे मात्र प्राण-हनन हिंसा है वैसे प्राण-रक्षण लालसा में जैन के मूल - अपरिग्रह की उपेक्षा के लिए, भी अहिंसा है। पर, आचार्य ने ऐसा नहीं किया और मिथ्या व प्रच्छन्नरूप से लेश्ण के लक्षण को अहिंसा के सभी पापों मे प्रमाद को प्रमुखता दी। अत. यह आवश्यक लक्षण में फलितकर कु-शील (कुस्वभाव) का परिचय है कि हम पापों के त्याग के पूर्व पापो के कारण भूत दिया--पांचों पापो की वढवारी की और जो अब प्रमाद - परिग्रह का त्याग करे तथा कषाय और योग प्रायश्चिन के सन्मुख हों ; अस्तु, 'सर्वे भवन्तु जैनाः ।' जन्य भाव और कार्यों को शुभ और अशुभ लेश्याओं के वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज नई दिल्ली-२
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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