________________
पुष्वेव चम्पू का आलोचनात्मक परिशीलन
इसमें प्रथम तीर्थकर वृषभनाथ, आदिनाथ या पुरुदेव का प्रथम परिच्छेद में महाकवि अर्हहास के हरक्तित्व का चरित्र अंकित है।
आकलन करते हुए यह निश्चय किया गया है कि वह वेद तीर्थकर वृषभनाथ का चरित्र अनेक जैन पुराणो और पुराणो के अप्रतिम अध्येता थे। वे जन्म पर्यन्त गृहस्थ ही काव्यो में गुंथा हुआ है, प्राकृत, सस्कृत, अपभ्र श और रहे । अपने जीवन के अन्तिम दिनों में वे आशाधर के पास हिन्दी ही नही कन्नड जैसी दक्षिण भारतीय भाषाओं के पहुंचे और उनके 'धर्मामृत से प्रभावित होकर काव्य रचना कवियो ने भी उनके इतिवृत्त को लिखकर अपने आपको में संलग्न हुए। उनका समय आशाधर और अलंकारगौरवान्वित किया है। वैदिक साहित्य में ऋषभदेव का चिन्तामणि के कर्ता अजितसैन के मध्य ठहरता है। अतः उल्लेख बहुचर्चित रहा है और वैदिक परम्परा मे उन्हें अहहास ने आशाधर का उल्लेख बड़े ही सम्मान के साथ आठवां अवतार मानकर वैदिक एवं श्रमण सस्कृतियो के अपनी कृतियो में किया है और अलंकार चिन्तामणि में सह अस्तित्व का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। मुनिसुव्रत काव्य के श्लोक उदाहणस्वरूप प्रस्तुत किये गये ___ मानव जाति के समुन्नयन में जिन महापुरुषो का हैं। अत: इन दोनों के मध्य अहंदास का समय तेरहवीं प्रमुख योगदान रहा है, उनमें तीर्थंकर ऋषभदेव अग्रगण्य शताब्दी का मध्य भाग है। है। वे आद्य कर्मोपदेष्टा और प्रथम तीर्थकर है, जिनकी आगे आलोच्य प्रथ की स्तवकानुसार संक्षिप्त कथावस्तु विचारधारा एवं चिन्तन का मानव-जीवन पर स्थाई प्रभाव प्रस्तुत की गई है। कथावस्तु के मूल श्रोत पर विचारकर पडा है। ऐसे महापुरुष के चरित्र को अपना वर्णन-विषय यह निश्चय किया गया है कि उन्होने जिनसेन कृत आदिबनाने वाला काव्य निश्चय ही उपादेय है।
पुराण से पुरुदेवचम्पू की कथावस्तु ग्रहण की है। और पुरुदेवचम्पू के गद्य व पद्य दोनो ही प्राञ्जल तथा प्रौढ उसमे नाम मात्र के परिवर्तन, परिवद्धन किये है। रूप मे रचे गये है, यह कालिदास, हरिचन्द, वाणभट्ट जैसे द्वितीय परिच्छेद मे काव्य-स्वरूप की सामान्य चर्चा महाकवियो की कृतियो से प्रभावित और तुलनीय है। की गई है। काव्य के भेद बताते हुए चम्पू शब्द की व्युइसकी कथावस्तु दस स्तरको मे विभक्त है। आरम्भिक पत्ति दी गई है । विभिन्न चम्पू-परिभाषायें देकर अन्त में तीन स्तवको मे ऋषभदेव के पूर्वभवो का विशद् वर्णन है, कहा गया है कि यद्यपि चम्पू की निष्पक्ष और पूर्ण परिशेष मे ऋषभदेव व उनके पुत्र भरत और बाहुबली का भाषा देना अत्यन्त कठिन कार्य है तथापि 'गद्य पद्य......" चरित्र चित्रित है।
इत्यादि डा. त्रिपाठी की परिभाषा को उचित कहा जा ____ इसका कथाभाग अत्यधिक रोचक है, जिस पर अहंद्दास सकता है। आगे चम्पू काव्य की चर्चा कर जनचम्पूकाव्यों की नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा से सम्पृक्त नई-नई कल्प- की परम्परा का उल्लेख किया गया है तथा यशस्तिलक, नाओं तथा श्लेष, विरोधाभास, परिसंख्या आदि अलकारो जीवन्धर दयोदय तथा महावीर तीर्थकर, वर्धमान, पुण्याश्रव, के पट ने इसके सौन्दर्य को और अधिक वृद्धिंगत कर दिया है। भारत. भरतेश्वराभ्युदय, जैनाचार्यविजय आदि चम्पकाव्यों
इतना होने पर भी आधुनिक शोध की दृष्टि से यह का परिचय दिया गया है। ग्रन्थरत्न उपेक्षित ही रहा। इस पर लिखे गये शोधनिबन्धों यद्यपि संख्या की दृष्टि से अत्यल्प ही जैनचम्पूकाव्यों की संख्या भी नगण्य ही है। यतः इस विषय पर शोध का सृजन हुआ, पर गुणवत्ता की दृष्टि से जैनचम्पूकाव्य की महती आवश्यकता स्पष्ट है, अत: मैंने इस ग्रंथ का पीछे नही है। सोमदेव का यशस्तिलक चम्पू काव्यों का आलोचनात्मक रूप से परिशीलन करने का निश्चय किया। मेरु है। जीवनधरचंप, जहां कथातत्व की दृष्टि से अपनी
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध को नो परिच्छेदो मे विभक्त किया समानता नही रखता, वहीं पुरुदेवचंपू श्लेष की दृष्टि से गया है, जिनमें साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, कथा- अत्यन्त महत्वपूर्ण चंपूकाव्य है। दयोदचंपू आधुनिक शैली त्मक एवं चारित्रात्मक दृष्टि से सर्वांग विश्लेषण प्रस्तुत पर लिखे जाने से स्वतः ही हृदयग्राही बन पड़ा है। महाकिया गया है। परिच्छेदगत सारांश निम्न प्रकार है- वीर तीर्थंकरचंप चौबीस तीर्थकरों का वर्णन करने से