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शोध प्रबन्ध-सार:
पुरुदेव चम्पू का पालोचनात्मक परिशीलन
डाल कपूरचन जैन संस्कृत काव्य को गद्य-पद्य और मिश्र इन तीन भागों लोकप्रिय हुई, फलतः लगभग एक सहस्र वर्षों मे विपुल में विभक्त किया गया है। मिश्र रचना शैली के प्राचीनतम चम्पू काव्यो का सृजन हुआ। डा० छविनाथ त्रिपाठी ने उदाहरण वेदों के साथ ही ब्राह्मण ग्रन्थों में पाये जाते है। चम्पू काव्य का आलोचनात्मक एव ऐतिहासिक अध्ययन पालि की जातकथाओ और प्राकृत की 'कुवलयमाला' अथ मे लगभग २५० चम्पू काव्यो की सूची दी है। प्रभति ग्रन्थो में इस शैली के दर्शन होते है । सस्कृत नाटको जैन चम्पू काव्यो मे 'सोमदेव का यशस्तिलक' हरिमें तथा पंचतन्त्र हितोपदेश जैसी रचनाओ में गद्य-पद्य दोनों चन्द्र का 'जीवन्धर' और अहंदास का 'पुरुदेवचम्पू' अत्यन्त का प्रयोग हुआ है।
प्रसिद्ध चम्पूकाव्य है। उन्नीसवीं और बीसवी शती मे भी किन्तु यहां गद्य तथा पद्य का अपना विशिष्ट स्थान जैन चम्पूकाव्यो का सृजन हुआ, जिसमे मुनि श्री ज्ञानरहा है । यहां कलात्मक भाग गद्य मे और उसका सार या सागर महाराज का 'दयोदय चम्पू' और श्री परमानन्द उपदेश भाग पद्य मे ग्रथित रहा । जब गद्य तथा पद्य दोनो पाण्डेय का 'महावीर तीर्थकर चम्पू' उल्लेखनीय कृतियां मे ही उत्कृष्टता, प्रौढ़ता और कलात्मकता आने लगी तब हैं। अभी हाल में श्री मूलचन्द शास्त्री ने 'वर्धमान चम्पू' नवगुणानुरागी कवियो ने सम्मिलित प्रौढ़ गद्य और पद्य की रचना की है, जो शीघ्र ही प्रकाशित होकर विद्वत की कसौटी पर अपने आपको परखा, फलतः अनेक कवियों समाज के समक्ष जा रहा है। इनके अतिरिक्त पुण्याश्रवने गद्य की अर्थगरिमा व पद्य की रागमयता मे समन्वित चम्पू', 'भरतेश्वराभ्युदय चम्पू', 'जैनाचार्यविजय चम्पू' गद्य-पद्य मिश्रित काव्यों की रचना की। कालान्तर में यही आदि सुन्दर जैनचम्पू काव्य है। जैनचम्पू काव्यों की इस प्रौढ़ गद्य-पद्यमयी विधा 'चम्पू' नाम से अभिहित हुई। परम्परा में महाकवि अहंदास का नाम अत्यन्त सम्मान
सर्वप्रथम दण्डी ने काव्यदर्श में गद्य-पद्यमयी काचित और आदर के साथ लिया जाता है। चम्पूरित्यमिधीयते यह चम्पू की परिभाषा प्रस्तुत की। महाकवि अर्हद्दास की तीन रचनाएं उपलब्ध हैं। दण्डो का समय आलोचको ने सातवी शती स्वीकार किया 'मुनिसुव्रतकाव्य' मे बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ का है, जिससे इस अनुमान को पर्याप्त अवकाश मिलता है कि चरित्र चित्रित है, इसमे दस सर्ग है और कथावस्तु उत्तरइससे पूर्व भी चम्पू रचनाए रही होंगी, जो आज भी काल पुराण से ली गई है। स्वय कवि ने इसे 'काव्यरत्न' कहा के गर्त में पड़ी अन्वेषकों की बाट जोह रही है। है। दूसरा काव्य 'भव्यजनकण्ठाभरण' है, जो सचमुच
महाकवि हरिचन्द ने लिखा है कि गद्यावली और ही भव्य जीवों द्वारा कंठ मे आभरण रूप से धारण करने पद्यावली दोनों ही, पृथक-पृथक प्रमोद उत्पन्न करती हैं। योग्य है। इसमे दो सो बयालीस पद्य है, जिनमें अहहास फिर दोनों से समन्वित रचना तो बाल्य और तारुण्य से ने देव-शास्त्र-गुरू और सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान तथा सम्यकयुक्त कान्सा की भांति असह्लादक होगी, इसमे संशय नही चारित्र का स्वरूप निवद्ध किया है। और हुआ भी यही, दशवी शती से ही यह शैली अत्यन्त अर्हदास का तीसरा काव्य 'पुरुदेवचम्पू' काव्य है।
० रुहेलखड विश्व विद्यालय की पी० एच०डी० उपाधि के लिए स्वीकृत ।