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________________ परिग्रह की घुस पैठ में अहिंसा को लाक्षणिक हत्या रूप में ही क्यों न हो। यहां तक कि अपने में अपनेपन यदि प्राण रक्षण रूप उक्त प्रसंग को हम अहिंसा का का विकल्प उठना भी परिग्रह है और इसीलिए मोक्षमार्ग नाम न देकर "शुभ लेश्या" नाम दे दें तो सही बैठ जाता में निर्विकल्प दशा को प्रमुख स्थान दिया गया है। यद्यपि है। क्योकि प्राण हनन और प्राण रक्षण दोनों स्थलों में ही "मूर्छा" को परिग्रह कहा है और व्यवहार में मूर्छा की "कषायोदयानरजित" योग प्रवृत्ति होती है जो लेश्या के 'ममेदं" यह मेरा है, ऐसी परिभाषा की गई है। पर, लक्षण से पूर्ण मेल खा जाती है-प्राण हनन और प्राण वास्तव में यहां पर आचार्य का भाव ममत्व (अपने पन) रक्षण दोनो मे ही कषाय और योग साथ चलते हैं। हनन मात्र से संबंधित न होकर अधिक व्यापक रूप मे है-इसमे और रक्षण मे यदि कोई अन्तर है तो वह अन्तर मात्र ममत्व की भांति परत्व (परायेपन) जैसे अनेको भेद समाए अशुभ और शुभ लेश्या रूपो मे ही है। जबकि अहिंसा में हुए है। यदि ऐसा न हो और मात्र "यह मेरा है" से भिन्न, रागादिकषाय और योग जाति का सर्वथा अभाव हैऐसे भाव जिनमे मेरा पन नही है जैसे---किसी से घृणा "अप्रादुर्भाव: खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति ।"करना, किसी को गाली देना, किसी को मार देना आदि यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि आचार्यों ने जैसे पाप ममत्व की परिधि से निकल जाएगे।-परिग्रह न प्राण व्यपरोपण को हिंसा कहा वैसे अहिंसा के लक्षण को कहलाएगे। क्योकि ये सभी भाव और कार्य ममत्व न प्राण रक्षण रूप मे नही कहा । क्योकि वे जानते थे किहोकर, उससे विपरीत घणादि के ही फलित कार्य है और प्राण रक्षण विकल्पाधीन होने से प्रमाद के बिना सम्भव ममत्व से अधिक भयावह भी है। भला सोचिए . जब नही और प्रमाद परिग्रह है और परिग्रह हिंसा मे कारण आचार्य ममत्व भाव को परिग्रह बतला रहे है तब घणादि है। इसीलिए उन्होंने प्रमाद के अभाव को अहिंसा कहा। जैसे भाव अपरिग्रह होगे क्या? अर्थात नही हो सकेंगे। और उसे रक्षा करने आदि जैसे विकल्पो से नही जोडा.। एतावता मानना होगा कि राग के साथ पर-प्रेरित घणादि जैसा कि कालान्तर में जोड़ा जाने का प्रचलन चल पड़ा जैसे सभी भाव आत्मा को अहितकारक होने से "मी"- और लेश्याभाव के व्यवहार का सर्वथा लोप हो गया। परिग्रह की श्रेणी में आते है। हनन और रक्षण से लेश्या की व्यवहारिकता कॅसे मल __इसी भांति जब हम अहिंसा के लक्षण की ओर दृष्टि- खाती है इसे विभिन्न आगम लक्षणो से स्पष्ट जाना जा पात करते है तब वहा भी "अप्रादुर्भाव : खलु रागादीना सकता है। तथाहिभवत्यहिंसेति" स्पष्ट लक्षण दिखाई देता है। इसका तात्पर्य कषायोदयरजिता योग प्रवृत्ति लेश्या ।" ऐसा है कि जहा किंचित भी रागादि भाव है, बहा हिंसा -राजवा०२/६ है (और वही मूच्छ भाव-परिग्रह है) जबकि लम्बे समय से "कषायश्लेष प्रकर्षाप्रकर्षयुक्ता योगवत्तिर्लेश्या।" अहिंसा के जनक अपरिग्रह की उपेक्षा कर रागादि पार -राज वा० ६/७ 'कषायोदयतो योगप्रवृत्तिरूपशिता । ग्रह जन्य करुणा, दया आदि जैसे भावो से फलित प्राण -श्लोकवा० २/७/११ रक्षा को अहिंसा नाम दिया जा रहा है। हमारा ऐसा "जोगप उत्ती लेस्सा कसाय उदयाणरजिया हो।" चलन कहां तक उचित है ? विचार दृष्टि से तो ऐसा गोम्मट०.४५ मालूम होता है कि हम जिनवाणी को माता मानकर भी "कषायोदयरजिता योगप्रवृत्तिरिति कृत्वा औरमिकीउसकी अवहेलना कर रहे हैं और प्रमाद-परिहार रूप जैन त्यच्यते ।" -सर्वा० २/६ की अहिंसा के सही रूप से दूर चले जा रहे है-अहिंसा पी सजे जा रहे है. दिमागयोगपरिणामो लेण्या। की मूल व्याख्या को बदल रहे हैं। स्पष्ट है कि रागादिरूप योगस्तु विविधो पि कर्मोदयजन्य एवं ।" विकल्प हुए बिना किसी जीव की प्राण रक्षा के भाव और अन्योग द्वार पर हेमचन्द्रवृत्ति सूत्र १२६ तद्रूप कार्य दोनों ही न हो सकेंगे- . 'उल्टे रागादि जैसे परि- उपर्युक्त सभी लक्षण लेश्या के हैं और कषामोदयान. ग्रह सर्वथा हिंसा ही होगे। (शेष पृ०७ पर)
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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