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________________ ३०, वर्ष ३९,कि. २ अनेकांत तस्मादिन्द्रादीनामनुल्लघ्यं । कस्मात् ? तदुपज्ञत्वेन तेषामनु- है और जिसके कारण इसे निकालो, इसे रखो जैसा आंदोलंध्यं सर्वज्ञ प्रणीतं शास्त्र ततस्तत्सावं ।'-(प्रभाचन्द्र चल पड़ा है। वृत्ति ६) अर्थात् वे आप्त द्वारा कथित होने से इन्द्र आदि यद्यपि पं० प्रवर टोडरमल जी से पहिले, चामुण्डराय, (आचार्यों) द्वारा अनुल्लध्य है, सर्वज्ञप्रणीत होने से सर्व- पं० आशाधर और राजमल प्रति श्रावकों द्वारा अनेक हितकारी-सार्वजनीन है। अत हम ऐसा मानते हैं कि ग्रंथ लिखे गये और वे पडित जी के समक्ष (जानकारी में) आगम सर्वज्ञवाणीरूप होने से स्वय प्रमाण और अपरीक्ष्य थे, पर पडित जी ने अपने स्वाध्याय ग्रंथों में उन्हें स्मरण हैं । इसके सिवाय ऊपर लिखे आगम लक्षण (न० २) मे न कर परम्परित मान्य आचार्यों (निर्ग्रन्थ गुरुओं) के ग्रंथों तो धवलाकार ने स्पष्ट निर्देश दिया है कि --- आगम युक्ति को ही मम्मान दिया।* यदि सग्रन्थो द्वारा रचित ग्रंथ आदि के गोचर नहीं है। ऐसी अवस्था मे स्वय अप्रमाणिक, आग म होते तो पडित जी उनमे से किसी एक के नाम का हम जैसा कोई मन्दबुद्धि यदि अपनी कमजोर बुद्धिरूपी तो उल्लेख करते, जैसा उन्होने नही किया। फलित कमजोर कसौटी पर कस कर आगम में प्रामाणिकता लाने होता है ५० जी की दृष्टि परपरित आचार्यों को प्रामाकी बात करे तो इसे आगम की अवहेलना ही कहा णिक मानने तक ही सीमित रही है। सर्वार्थसिद्धि में जायगा। भला, काई मदबुद्धि सर्वज्ञवाणी (आगम) को आचार्यों को आगम वक्ता स्वीकार किया ही है-गृहस्थों परीक्षा करेगा भी कैसे? एक ओर तो हम आगम को को नही। स्वत: प्रामाण्य माने और दूसरी और किन्ही विशेषणो से तात्पर्य यह है कि वर्तमान में आगम वे ही हैं जो उसकी परख की बात कर, आगम को परत प्रामाण्यसिद्ध आप्तकथित और परम्परित प्रामाणिक निर्ग्रन्थ-गुरुओं द्वारा करने की बात करे तो यह आगम के स्वत. प्रामाण्य का (जमा कि सर्वार्थ सिद्धि में कहा गया है) निवद्ध हों । अन्य विरोध ही होगा। कृतियो को हम आगमानसारी कह सकते हैं और वह भी सच तो यह है कि हम दिगम्बर सर्वज्ञ की मूलवाणी गारण्टी के बिना । कारण स्पष्ट है कि गहस्थियों मे 'अनाऔर श्रुत केवलियो द्वारा सकलित अग पूर्वो का सर्वथा त्मार्थ विना रागः' पन घटित नही होता और वे विषयो लोप मान बैठे* या शेष रहे दृष्टिवाद श्रुत * की सीमा में की आशा से रहित, निरारम्भी और निष्परिग्रही नही होते न रह सके और कुछ लोग 'अनात्मार्थ विनारागः' की और इन गुणों के बिना वे आप्त ओर निर्ग्रन्थ गुरुओं जैसा अवहेलना कर सग्रंथो और आरम्भियो की कृतियो को आगम निर्दोष व्याख्यान नही कर सकते। आगम लक्षणों से और मे मिश्रित कर उन्हे आगमरूप मे अर्घ चढ़वाने लगे, तब सर्वार्थसिद्धि १-२० की टीका से भी हमारे कथन की पूर्ण आगम की परीक्षा की बात पैदा हुई। जबकि अल्पबुद्धि पुष्टि होती है। और परिग्रहियो के लिए आगम-परीक्षण कार्य सर्वथा अशक्य अमुक को रक्खो, अमुक को निकालो जैसी एक लक्ष्यहै-'मुण्डे मुण्डे मतिभिन्नाः ।'- जैसा कि आज हो रहा विकृति के निवारणार्थ हम पहिले भी कह चुके हैं कि * "दिगम्बरो ने पाटलिपुत्र मे सकलित आगमो को मानने से इन्कार कर दिया और उन्होंने यह घोषणा कर दी कि अग और पूर्व नष्ट हो गये।' -जैन साहि० इति-पूर्व पीठिका पृ० ४६६ * 'श्वेताम्बर परम्परा जिम दृष्टिबाद श्रुत का उच्छेद मानती है उसी दृष्टिवाद श्रुत के अग्रायणीय और ज्ञानप्रवाद पूर्व से षट् खडागम, महावध, कषायपाहुड आदि दिगम्बर सिद्धान्त ग्रन्थो की रचना हुई है।' -जैनदर्शन (प. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य) पृ०१३ ...... उपयोगी ग्रन्थनि का किंचित अभ्यास करि टीका सहित समपसार, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, नियमसार, गोम्मटसार, लब्धिसार, त्रिलोकसार, तत्स्वार्थसत्र इत्यादि शास्त्र अर भरणासार, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, अष्टपाहुड, आत्मानुशासन आदि शास्त्र अर श्रावक मुनि का आचार के प्ररूपक अनेक शास्त्र, अर सुष्ठुकथा सहित पुराणादि शास्त्र इत्यादि अनेक शास्त्र हैं।' -मोक्षमा० प्रकाशक (प्रयम अधिकार) -
SR No.538039
Book TitleAnekant 1986 Book 39 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1986
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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